________________
११८
आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध आपने दोषपूर्ण देखा है, दोषयुक्त सुना है, दोषयुक्त मनन किया है, आपने दोषयुक्त ही समझा है, ऊँची-नीची-तिरछी सभी दिशाओं में सर्वथा दोषपूर्ण होकर निरीक्षण किया है, जो आप ऐसा कहते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रज्ञापन करते हैं, ऐसा प्ररूपण (मत-प्रस्थापन) करते हैं कि सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व हनन करने योग्य हैं, उन पर शासन किया जा सकता है, उन्हें बलात् पकड़ कर दास बनाया जा सकता है, उन्हें परिताप दिया जा सकता है, उनको प्राणहीन बनाया जा सकता है; इस विषय में यह निश्चित समझ लो कि हिंसा में कोई दोष नहीं ।" यह सरासर अनार्य-वचन है। __ १३८. हम इस प्रकार कहते हैं, ऐसा ही भाषण करते हैं, ऐसा ही प्रज्ञापन करते हैं, ऐसा ही प्ररूपण करते हैं कि सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों की हिंसा नहीं करनी चाहिए, उनको जबरन शासित नहीं करना चाहिए, उन्हें पकड़ कर दास नहीं बनाना चाहिए, न ही परिताप देना चाहिए और न उन्हें डराना-धमकाना, प्राणरहित करना चाहिए। इस सम्बन्ध में निश्चित समझ लो कि अहिंसा का पालन सर्वथा दोष रहित है।
यह (अहिंसा का प्रतिपादन) आर्यवचन है।
१३९. पहले उनमें से प्रत्येक दार्शनिक को, जो-जो उसका सिद्धान्त है, उसमें व्यवस्थापित कर हम पूछेगे - "हे दार्शनिको! प्रखरवादियो! आपको दुःख प्रिय है या अप्रिय ? यदि आप कहें कि हमें दुःख प्रिय है, तब तो वह उत्तर प्रत्यक्ष-विरुद्ध होगा, यदि आप कहें कि हमें दुःख प्रिय नहीं है, तो आपके द्वारा इस सम्यक् सिद्धान्त के स्वीकार किए जाने पर हम आपसे यह कहना चाहेंगे कि, "जैसे आपको दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सभी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःख असाताकारक है, अप्रिय है, अशान्तिजनक है और महा भयंकर है।" - ऐसा मैं कहता हूँ।"
विवेचन - इस उद्देशक में आस्रव और परिस्रव की परीक्षा के लिए तथा आस्रव में पड़े हुए लोग कैसे परिस्रव (निर्जरा-धर्म) में प्रवृत्त हो जाते हैं तथा परिस्रव (धर्म) का अवसर आने पर भी लोग कैसे आस्रव में ही फंसे रहते हैं? आस्रवमग्न जनों को नरकादि में विभिन्न दुःखों का स्पर्श होता है तथा क्रूर अध्यवसाय से ही प्रगाढ़ वेदना होती है, अन्यथा नहीं, इनके लिए विवेक सूत्र प्रस्तुत किये गये हैं । अन्त में हिंसावादियों के मिथ्यावादप्ररूपणा का सम्यग्वाद के मण्डन द्वारा निराकरण किया गया है । इस प्रकार अर्हद्दर्शन की सम्यक्तता का स्थापन किया
आस्रव का सामान्य अर्थ है - 'कायवाड् मनः कर्म योगः, स आस्रवः' २ काया, वचन और मन की शुभाशुभ क्रिया-प्रवृत्ति योग कहलाती है, वही आस्रव है।
हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील आदि में प्रवृत्ति अशुभ कायास्रव है और इनसे विपरीत शुभ आशय से की जाने वाली प्रवृत्ति शुभकायात्रव है।
___कठोर शब्द, गाली, चुगली, निन्दा आदि के रूप में पर-बाधक वचनों की प्रवृत्ति वाचिक अशुभ आस्रव है, इनसे विपरीत प्रवृत्ति वाचिक शुभास्रव है।
मिथ्याश्रुति, घातचिन्तन, अहितचिन्तन, ईर्ष्या, मात्सर्य, षड्यन्त्र आदि रूप में मन की प्रवृत्ति मानस अशुभास्रव है और इनसे विपरीत मानस शुभास्रव है। ३ १. आचा० शीला० टीका पत्रांक १६४ २. तत्त्वार्थसूत्र अ० ६, सू० १, २ ३. तत्त्वार्थ-राजवार्तिक अ०७।१४। ३९ । २५ .