SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध नरक - तिर्यंचगतियों में भ्रमण रुक जाता है, साधक सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र का यथाशक्ति पालन करके आयुष्य क्षय होने पर सौधर्मादि देवलोकों में जाता है, पुण्य शेष होने से वहाँ से मनुष्यलोक में कर्मभूमि, आर्यक्षेत्र, सुकुलजन्म, मनुष्यगति तथा संयम आदि पाकर विशिष्टतर अनुत्तर देवलोक तक पहुँच जाता है। फिर वहाँ से च्यवकर मनुष्य जन्म तथा उक्त उत्तम संयोग प्राप्त कर उत्कृष्ट संयम पालन करके समस्त कर्मक्षय करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार पर अर्थात् संयमादि के पालन से पर - अर्थात् स्वर्ग- परम्परा से अपवर्ग (मोक्ष) भी प्राप्त कर लेता है। अथवा पर- सम्यग्दृष्टि गुणस्थान (४) से उत्तरोत्तर आगे बढ़ते-बढ़ते साधक अयोगिकेवली गुणस्थान (१४) तक पहुँच जाता है। अथवा पर - अनन्तानुबन्धी के क्षय से पर- दर्शनमोह - चारित्रमोह का क्षय अथवा भवोपग्राही- घाती कर्मों का क्षय कर लेता है। उत्तरोत्तर तेजोलेश्या प्राप्त कर लेता है, यह भी 'परेण परं जंति' का अर्थ है । १०८ 'णावकंखंति जीवितं' के दो अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं - (१) दीर्घजीविता नहीं चाहते, कर्मक्षय के लिए उद्यत क्षपक साधक इस बात की परवाह (चिन्ता) नहीं करते कि जीवन कितना बीता है, कितना शेष रहा है। (२) वे असंयमी जीवन की आकांक्षा नहीं करते। २ - 'एगं विगिंचमाणे ' इस सूत्र का आशय यह है कि क्षपकश्रेणी पर आरूढ उत्कृष्ट साधक एक अनन्तानुबन्धीकषाय का क्षय करता हुआ, पृथक् - अन्य दर्शनावरण आदि का भी क्षय कर लेता है। आयुष्यकर्म बंध भी गया हो तो भी दर्शनसप्तक का क्षय कर लेता है। पृथक्-अन्य का क्षय करता हुआ एक अनन्तानुबन्धी नामक कषाय का भी क्षय कर देता है। 'विगिंच' शब्द का अर्थ 'क्षय करना' ही ग्रहण किया गया है। - 'अत्थि सत्थं परेण परं' • इस सूत्र की शब्दावली के पीछे रहस्य यह है कि जनसाधारण को शस्त्र से भय लगता है, साधक को भी, फिर वह अकुतोभय कैसे हो सकता है? इसी का समाधान इस सूत्र द्वारा किया गया है कि द्रव्यशस्त्र उत्तरोत्तर तीखा होता है, जैसे एक तलवार है, उससे भी तेज दूसरा शस्त्र हो सकता है। जैसे शस्त्रों में उत्तरोत्तर, तीक्ष्णता मिलती है, वैसी तीक्ष्णता अशस्त्र में नहीं होती। अशस्त्र हैं- संयम, मैत्री, क्षमा, कषाय-क्षय, अप्रमाद आदि। इनमें एक-दूसरे से प्रतियोगिता नहीं होती। इसी प्रकार भावशस्त्र हैं- द्वेष, घृणा, क्रोधादि, कषाय, ये सभी उत्तरोत्तर तीव्र-मन्द होते हैं। जैसे राम को श्याम पर मंद क्रोध हुआ, हरि पर वह तीव्र हुआ और रोशन पर वह और भी तीव्रतर हो गया, किन्तु 'कमल' पर उसका क्रोध तीव्रतम हो गया। इस प्रकार संज्वलन, प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी और अनन्तानुबन्धी क्रोध की तरह मान, माया, लोभ तथा द्वेष आदि में उत्तरोत्तर तीव्रता होती है। किन्तु अशस्त्र में समता होती है। समभाव एकरूप होता है, वह एक के प्रति मंद और दूसरे के प्रति तीव्र नहीं हो सकता है। 'जे कोहदंसी' इत्यादि क्रम-निरूपण का आशय भी क्रोधादि का स्वरूप जानकर उनका परित्याग करने वाले साधक की पहिचान बताना है। क्रोधदर्शी आदि में जो 'दर्शी' शब्द जोड़ा गया है, उसका तात्पर्य है - क्रोधादि के १. २. ३. ४.. आचा० शीला० टीका पत्रांक १५६ आचा० शीला० टीका पत्रांक १५७ आचा० शीला० टीका पत्रांक १५७ आचा० शीला० टीका पत्रांक १५७
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy