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________________ तृतीय अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र १३०-१३१ १०७ ये पर-पर्याय भी स्व-पर्यायों के ज्ञान में सहायक होने से उस वस्तु सम्बन्धी हैं । जैसे स्व-पर्याय वस्तु के साथ अस्तित्व सम्बन्ध से जुड़े हुए हैं, उसी प्रकार पर-पर्याय भी नास्तित्व सम्बन्ध से उस वस्तु के साथ जुड़े हैं। इस प्रकार वस्तु के अनन्त भूतकालीन, अनन्त भविष्यत्कालीन, अनन्त वर्तमानकालीन स्व-पर्यायों को और अनन्तानन्त को जान लेने पर ही उस एक वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान हो सकता है । इसके लिए अनन्तज्ञान की आवश्यकता है। अनन्तज्ञान होने पर ही एक वस्तु पूर्णरूप से जानी जाती है और जिसमें अनन्तज्ञान होगा, वह संसार की सर्व वस्तुओं को जानेगा। इस अपेक्षा से यहां कहा गया है कि जो एक वस्तु को पूर्ण रूप से जानता है, वह सभी वस्तुओं को पूर्ण रूप से जानता है और जो सर्व वस्तुओं को पूर्ण रूप से जानता है, वही एक वस्तु को पूर्ण रूप से जानता है। यही तथ्य इस श्लोक में प्रकट किया गया है - _एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टा । सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा, एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ॥ 'जे एगं नामे० 'इस सूत्र का आशय भी बहुत गम्भीर है - (१) जो विशुद्ध अध्यवसाय से एक अनन्तानुबन्धी क्रोध को नमा देता है - क्षय कर देता है, वह बहुत से अनन्तानुबन्धी मान आदि को नमा-खपा देता है, अथवा अपने ही अन्तर्गत अप्रत्याख्यानी आदि कषाय - प्रकारों को नमा-खपा देता है। (२) जो एक मोहनीय कर्म को नमा देता है - क्षय कर देता है, वह शेष कर्म प्रकृतियों को भी नमा-खपा देता है। इसी प्रकार जो बहुत से कम स्थिति वाले कर्मों को नमा-खपा देता है, वह उतने समय में एक अनन्तानुबन्धी कषाय को नमाता-खपाता है, अथवा एक मात्र मोहनीय कर्म को (उतने समय में) नमाता-खपाता है, क्योंकि मोहनीय कर्म की उत्कष्ट स्थिति ७० कोटा-कोटी सागरोपमकाल की है. जबकि शेष कर्मों की २० या ३० कोटाकोटी सागरोपम से अधिक स्थिति नहीं है। यहाँ 'नाम' शब्द 'क्षपक' (क्षय करने वाला) या 'उपशामक' अर्थ में ग्रहण करना अभीष्ट है। उपशमश्रेणी की दृष्टि से भी इसी तरह एकनाम, बहुनाम की चतुर्भंगी समझ लेनी चाहिए।' __कषाय-त्याग की उपलब्धियां बताते हुए, 'जंति वीरा महाजाणं परेण परं जंति' इत्यादि वाक्य कहे गये हैं। कर्म-विदारण में समर्थ, सहिष्णु, या कषाय-विजयी साधक वीर कहलाते हैं । वृत्तिकार ने 'महायान' शब्द के दो अर्थ किये हैं - (१) महान् यान (जहाज) महायान है, वह रत्नत्रयरूप धर्म है, जो मोक्ष तक साधक को पहुंचा देता है। २ (२) जिसमें सम्यग्दर्शन त्रय रूप महान् यान हैं, उस मोक्ष को महायान कहते हैं । ३ ... 'महायान' का एक अर्थ-विशाल पथ अथवा 'राजमार्ग' भी हो सकता है । संयम का पथ - राजमार्ग है, जिस पर सभी कोई निर्भय होकर चल सकते हैं। 'परेण परं जंति' का शब्दशः अर्थ तो किया जा चुका है। परन्तु इसका तात्पर्य है आध्यात्मिक दृष्टि से (कषाय-क्षय करके) आगे से आगे बढ़ना। वृत्तिकार ने इसका स्पष्टीकरण यों किया है - सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने से १. आचा० शीला० टीका पत्रांक १५६ २. आचा० शीला० टीका पत्रांक १५६ आचा० शीला० टीका पत्रांक १५६
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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