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________________ १०६ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध के बिना सिद्धि-सुख प्राप्त हो सकता है।' 'आयाणं सगडब्भि' - यह वाक्य इसी उद्देशक में दो बार आया है, परन्तु पहली बार दिए गये वाक्य में आयाणं के बाद 'निसिद्धा' शब्द नहीं है, जबकि दूसरी बार प्रयुक्त इसी वाक्य में निसिद्धा' शब्द प्रयुक्त है। इसका रहस्य विचारणीय है। लगता है - लिपिकारों की भूल से 'निसिद्धा' शब्द छूट गया है। २ . 'आदान' शब्द का अर्थ वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है - 'आत्म-प्रदेशों के साथ आठ प्रकार के कर्म जिन कारणों से आदान - ग्रहण किये जाते हैं, चिपकाये जाते हैं, वे हिंसादि पांच आस्रव, अठारह पापस्थान या उनके निमित्त रूप कषाय - आदान हैं।" - इन कषायरूप आदानों का जो प्रवेश रोक देता है, वही साधक अनेक जन्मों में उपार्जित स्वकृत कर्मों का भेदन करने वाला होता है। ४ । आत्म-जागृति या आत्मस्मृति के अभाव में ही कषाय की उत्पत्ति होती है। इसलिए यह भी एक प्रकार से प्रमाद है और जो प्रमादग्रस्त है, उसे कषाय या तजनित कर्मों के कारण सब ओर से भय है। प्रमत्त व्यक्ति द्रव्यतःसभी आत्म-प्रदेशों से कर्म संचय करता है, क्षेत्रतः- छह दिशाओं में व्यवस्थित, कालतः - प्रतिक्षण, भावतःहिंसादि तथा कषायों से कर्म संग्रह करता है। इसलिए प्रमत्त को इस लोक में भी भय है, परलोक में भी। जो आत्महित में जागृत है, उसे न तो संसार का भय रहता है, न ही कर्मों का। ५ . 'एगं जाणइ०' इस वाक्य का तात्पर्य यह है कि जो विशिष्ट ज्ञानी एक परमाणु आदि द्रव्य तथा उसके किसी एक भूत-भविष्यत् पर्याय अथवा स्व या पर-पर्याय को पूर्ण रूप से जानता है, वह समस्त द्रव्यों एवं पर-पर्यायों को जान लेता है, क्योंकि समस्त वस्तुओं के ज्ञान के बिना अतीत-अनागत पर्यायों सहित एक द्रव्य का पूर्ण ज्ञान नहीं हो सकता। इसी प्रकार जो संसार की सभी वस्तओं को जानता है. वह किसी एक वस्त को भी उसके अतीत-अनागत पर्यायों सहित जानता है। एक द्रव्य का सिद्धान्त दृष्टि से वास्तविक लक्षण इस प्रकार बताया गया है - एगदवियस्स जे अत्थपजवा वंजणपज्जवा वावि । तीयाऽणागयभूया तावइयं तं हवइ दव्वं ॥ 'एक द्रव्य के जितने अर्थपर्यव और व्यंजनपर्यव अतीत, अनागत और वर्तमान में होते हैं, उतने सब मिलाकर एक द्रव्य होता है।" प्रत्येक वस्तु द्रव्यदृष्टि से अनादि, अनन्त और अनन्त धर्मात्मक है। उसके भूतकालीन पर्याय अनन्त हैं, भविष्यत्कालीन पर्याय भी अनन्त होंगे और अनन्त धर्मात्मक होने से वर्तमान पर्याय भी अनन्त हैं। ये सब उस वस्तु के स्व-पर्याय हैं। इनके अतिरिक्त उस वस्तु के सिवाय जगत् में जितनी दूसरी वस्तुएँ हैं उनमें से प्रत्येक के पूर्वोक्त रीति से जो अनन्त-अनन्त पर्याय हैं, वे सब उस वस्तु के पर-पर्याय हैं। आचा० टीका पत्र १५४ आचा० टीका पत्र १५५ आचा० टीका पत्र १५५ __ आचा० टीका पत्र १५५ आचा० टीका पत्र १५५ आचा० शीला टीका पत्रांक १५५
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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