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तृतीय अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र १३०-१३१
१०५ १३०. जो क्रोधदर्शी होता है, वह मानदर्शी होता है;
जो मानदर्शी होता है, वह मायादर्शी होता है; जो मायादर्शी होता है, वह लोभदर्शी होता है; जो लोभदर्शी होता है, वह प्रेमदर्शी होता है; जो प्रेमदर्शी होता है, वह द्वेषदर्शी होता है; जो द्वेषदर्शी होता है, वह मोहदर्शी होता है; जो मोहदर्शी होता है, वह गर्भदर्शी होता है; जो गर्भदर्शी होता है, वह जन्मदर्शी होता है; जो जन्मदर्शी होता है, वह मृत्युदर्शी होता है; जो मृत्युदर्शी होता है, वह नरकदर्शी होता है: जो नरकदर्शी होता है, वह तिर्यंचदर्शी होता है;
जो तिर्यचदर्शी होता है, वह दुःखदर्शी होता है; . (अतः) वह मेधावी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष, मोह, गर्भ, जन्म, मृत्यु, नरक, तिर्यंच और दुःख को वापस लौटा दे (दूर भगा दे)। यह समस्त कर्मों का अन्त करने वाले, हिंसा-असंयम से उपरत एवं निरावरण द्रष्टा (पश्यक) का दर्शन (आगमोक्त उपदेश) है।
जो पुरुष कर्म के आदान - कारण को रोकता है, वही स्व-कृत (कर्म) का भेदन कर पाता है। १३१. क्या सर्व-द्रष्टा की कोई उपधि होती है, या नहीं होती ? नहीं होती।
- ऐसा मैं कहता हूँ। - विवेचन - सूत्र १२८ से १३१ तक में कषायों के परित्याग पर विशेष बल दिया गया है। साथ ही कषायों का परित्याग कौन करता है, उनके परित्याग से क्या उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं, कषायों के परित्यागी की पहिचान क्या है? इन सब बातों पर गम्भीर चिन्तन प्रस्तुत किया गया है।
१२८वें सूत्र में क्रोधादि चारों कषायों के वमन का निर्देश इसलिए किया गया है कि साधु-जीवन में कम से कम अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग तो अवश्य होना चाहिए, परन्तु यदि चारित्र-मोहनीय कर्म के उदयवश साधु-जीवन में भी अपकार करने वाले के प्रति तीव्र क्रोध आ जाय, जाति, कुल, बल, रूप, श्रुत, तप, लाभ एवं ऐश्वर्य आदि का मद उत्पन्न हो जाये, अथवा पर-वंचना या प्रच्छन्नता, गुप्तता आदि के रूप में माया का सेवन हो जाये, अथवा अधिक पदार्थों के संग्रह का लोभ जाग उठे तो तुरन्त ही संभल कर उसका त्याग कर देना चाहिए, उसे शीघ्र ही मन से खदेड़ देना चाहिए, अन्यथा वह अड्डा जमा कर बैठ जाएगा, इसलिए यहां शास्त्रकार ने 'वंता' शब्द का प्रयोग किया है। वृत्तिकार ने कहा है - क्रोध, मान, माया और लोभ को वमन करने से ही पारमार्थिक (वास्तविक) श्रमणभाव होता है, अन्यथा नहीं।
इस (कषाय-परित्याग) को सर्वज्ञ-सर्वदर्शी का दर्शन इसलिए बताया गया है कि कषाय का सर्वथा परित्याग किये बिना निरावरण एवं सकल पदार्थग्राही केवल (परम) ज्ञान-दर्शन की प्राप्ति नहीं होती और न ही कषाय-त्याग