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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्थ दुहतो जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए, जंसि एगे पमादेति । सहिते दुक्खमत्ताए पुट्ठो णो झंझाए । पासिमं दविए लोगालोगपवंचातो मुच्चति त्ति बेमि ।
॥तइओ उद्देसओ समत्तो ॥ १२७. हे पुरुष ! तू सत्य को ही भलीभाँति समझ ! सत्य की आज्ञा (मर्यादा) में उपस्थित रहने वाला वह मेधावी मार (मृत्यु, संसार) को तर जाता है।
सत्य या ज्ञानादि से युक्त (सहित) साधक धर्म को ग्रहण करके श्रेय (आत्म-हित) का सम्यक् प्रकार से अवलोकन - साक्षात्कार कर लेता है।
राग और द्वेष (इन) दोनों से कलुषित आत्मा जीवन की वन्दना, सम्मान और पूजा के लिए (हिंसादि पापों में) प्रवृत्त होता है। कुछ साधक भी इन (वन्दनादि) के लिए प्रमाद करते हैं।
ज्ञानादि से युक्त साधक (उपसर्ग-व्याधि आदि से जनित) दुःख की मात्रा से स्पृष्ट होने पर व्याकुल नहीं होता।
आत्मद्रष्टा वीतराग पुरुष लोक में आलोक (द्वन्दों) के समस्त प्रपंचों (विकल्पों) से मुक्त हो जाता है।
विवेचन - इस सूत्र में परम सत्य को ग्रहण करने और तदनुसार प्रवृत्ति करने की प्रेरणा दी गई है। साथ ही सत्ययुक्त साधक की उपलब्धियों एवं असत्ययुक्त मनुष्यों की अनुपलब्धियों की भी संक्षिप्त झांकी दिखाई है।
___ 'सच्चमेव समभिजाणाहि' में वृत्तिकार सत्य के तीन अर्थ करते हैं - (१) प्राणिमात्र के लिए हितकरसंयम, (२) गुरु-साक्षी से गृहीत पवित्र संकल्प (शपथ), (३) सिद्धान्त या सिद्धान्त-प्रतिपादक आगम। .
साधक किसी भी मूल्य पर सत्य को न छोड़े, सत्य की ही आसेवना, प्रतिज्ञापूर्वक आचरण करे, सभी प्रवृत्तियों में सत्य को ही आगे रखकर चले। सत्य - स्वीकृत संकल्प एवं सिद्धान्त का पालन करे, यह इस वाक्य का आशय है।
'दुहतो' (दुहतः) के चार अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं - (१) राग और द्वेष दो प्रकार से, (२) स्व और पर के निमित्त से, (३) इहलोक और परलोक के लिए, (४) दोनों से (राग और द्वेष) जो हत है, वह दुर्हत है।
'जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए' - इस वाक्य का अर्थ भी गहन है। मनुष्य अपने वन्दन, सम्मान एवं पूजा-प्रतिष्ठा के लिए बहुत उखाड़-पछाड़ करता है, अपनी प्रसिद्धि के लिए बहुत ही आरम्भ-समारम्भ, आडम्बर और प्रदर्शन करता है, सत्ताधीश बनकर प्रशंसा पूजा-प्रतिष्ठा पाने के हेतु अनेक प्रकार की छल-फरेब एवं तिकड़मबाजी करता है। ऐसे कार्यों के लिए हिंसा, झूठ, माया, छल-कपट, बेईमानी, धोखेबाजी करने में कई लोग सिद्धहस्त होते हैं । अपने तुच्छ, क्षणिक जीवन में राग-द्वेष-वश पूजा-प्रतिष्ठा पाने के लिए बड़े-बड़े नामी साधक भी १. आचा० टीका पत्र १५३ २. आचा० टीका पत्र १५३