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तृतीय अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र १२८-१२९
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अपने त्याग, वैराग्य एवं संयम की बलि दे देते हैं, इसके लिए हिंसा, असत्य, बेईमानी, माया आदि करने में कोई दोष ही नहीं मानते। जिन्हें तिकड़मबाजी करनी आती नहीं, वे मन ही मन राग और द्वेष की, मोह और घृणा-ईर्ष्या आदि की लहरों पर खेलते रहते हैं, कर कुछ नहीं सकते, पर कर्मबन्धन प्रचुर मात्रा में कर लेते हैं। दोनों ही प्रकार के व्यक्ति पूजा-सम्मान के अर्थी हैं और प्रमादग्रस्त हैं।'
'झंझाए' का अर्थ है - मनुष्य दुःख और संकट के समय हतप्रभ हो जाता है, उसकी बुद्धि कुण्ठित होकर किंकर्त्तव्यमूढ हो जाती है, वह अपने साधना-पथ या सत्य को छोड़ बैठता है। झंझा का संस्कृत रूप बनता है - ध्यन्धता (धी+अन्धता) - बुद्धि की अन्धता । साधक के लिए यह बहुत बड़ा दोष है । झंझा दो प्रकार की होती हैराग झंझा और द्वेष-झंझा । इष्टवस्तु की प्राप्ति होने पर राग-झंझा होती है, जबकि अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति होने पर द्वेषझंझा होती है। दोनों ही अवस्थाओं में सूझ-बूझ मारी जाती है। २
लोकालोक प्रपंच का तात्पर्य है - चौदह राजू परिमित लोक में जो नारक, तिर्यंच आदि एवं पर्याप्तकअपर्याप्तक आदि सैकड़ों आलोकों-अवलोकनों के विकल्प (प्रपंच) हैं, वही है - लोकालोक प्रपंच । ३
॥ तृतीय उद्देशक समाप्त ॥
चउत्थो उद्देसओ
चतुर्थ उद्देशक कषाय-विजयं
१२८. से वंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च । एतं पासगस्स दंसणं उवरतसत्थस्स पलियंतकरस्स, आयाणं सगडब्भि ।
१२९. जे एगं जाणति से सव्वं जाणति, जे सव्वं जाणति से एगं जाणति । सव्वतो पमत्तस्स भयं, सव्वतो अप्पमत्तस्स णत्थि भयं । जे एगंणामे से बहुंणामे जे बहुं णामे से एगं णामे । दुक्खं लोगस्स जाणित्ता, वंता लोगस्स संजोगं, जंति वीरा महाजाणं ।
आचा० टीका पत्र १५३ आचारांग टीका पत्र १५४ आचा० टीका पत्र १५४ यहाँ पाठान्तर भी है - जे एगणामे से बहुणामे, जे बहुणामे से एगणामे - इसका भाव है - जो एक स्वभाव वाला है, (उपशान्त है) वह अनेक स्वभाव वाला (अन्य गुण युक्त भी)है। जो अनेक स्वभाव वाला है वह एक स्वभाव वाला भी है।
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