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________________ तृतीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र १२४-१२७ १०१ भी अतीत-स्त्री, पुरुष, नपुंसक, सुभग-दुर्भग, सुखी-दुःखी, कुत्ता, बिल्ली, गाय, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि रूप रहा है, वही इस जन्म में प्राप्त और अनुभूत हुआ है और इस जन्म (वर्तमान) में जो रूप (इनमें से) प्राप्त हुआ है, वही रूप आगामी जन्म (भविष्य) में प्राप्त होगा, इसमें पूछना ही क्या है ? साधना करने की भी क्या जरूरत है? __आध्यात्मिक दृष्टि वाले साधक पूर्व अनुभूत विषय-सुखोपभोग आदि का स्मरण नहीं करते और न भविष्य के लिए विषय-सुख प्राप्ति का निदान (कामनामूलक संकल्प) करते हैं क्योंकि वे राग-द्वेष से मुक्त हैं। - तात्पर्य यह है - राग-द्वेष रहित होने से ज्ञानी जन न तो अतीत कालीन विषय-सुखों के उपभोगादि का स्मरण करते हैं और न ही भविष्य में विषय-सुखादि की प्राप्ति का चिन्तन करते हैं । मोहोदयग्रस्त व्यक्ति ही अतीत और अनागत के विषय-सुखों का चिन्तन-स्मरण करते हैं। 'विधूतकप्पे एताणुपस्सी' का अर्थ है - जिन्होंने अष्टविध कर्मों को नष्ट (विधूत) कर दिया है, वे 'विधूत' कहलाते हैं । जिस साधक ने ऐसे विधूतों का कल्प-आचार ग्रहण किया है, वह वीतराग सर्वज्ञों का अनुदर्शी होता है। उसकी दृष्टि भी इन्हीं के अनुरूप होती है। - अरति, इष्ट वस्तु के प्राप्त न होने या वियोग होने से होती है और रति (आनन्द) इष्ट-प्राप्ति होने से। परन्तु जिस साधक का चित्त धर्म व शुक्लध्यान में रत है, जिसे आत्म-ध्यान में ही आत्मरति - आत्म संतुष्टि या आत्मानन्द की प्राप्ति हो चुकी है, उसे इस बाह्य अरति या रति (आनन्द) से क्या मतलब है? इसलिए साधक को प्रेरणा दी गयी है'एत्थंपि अग्गहे चरे' अर्थात् आध्यात्मिक जीवन में भी अरति-रति (शोक या हर्ष) के मूल राग-द्वेष का ग्रहण न करता हुआ विचरण करे। मित्र-अमित्र-विवेक १२५. पुरिसा ! तुममेव तुम मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि ? जं जाणेज्जा उच्चालयितं तं जाणेज्जा दूरालयितं, जं जाणेज्जा दूरालइतं तं जाणेज्जा उच्चालइतं । १२६. पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि । १२५. हे पुरुष (आत्मन्) ! तू ही मेरा मित्र है, फिर बाहर, अपने से भिन्न मित्र क्यों ढूँढ रहा है ? जिसे तुम (अध्यात्म की) उच्च भूमिका पर स्थित समझते हो, उसका घर (स्थान) अत्यन्त दूर (सर्व आसक्तियों से दूर या मोक्षमार्गों में) समझो, जिसे अत्यन्त, दूर (मोक्ष मार्ग में स्थित) समझते हो, उसे तुम उच्च भूमिका पर स्थित समझो।। १२६. हे पुरुष ! अपना (आत्मा का) ही निग्रह कर। इसी विधि से तू दुःख से (कर्म से) मुक्ति प्राप्त कर सकेगा। सत्य में समुत्थान १२७. पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि । सच्चस्स आणाए से अवट्ठिए मेधावी मारं तरति। सहिते धम्ममादाय सेयं समणुपस्सति । आचा० टीका पत्र १५१ २. आचा० टीका पत्र १५२ 'उवट्ठिए से मेहावी' - यह पाठान्तर भी है
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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