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आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध
इसी सूत्र के संदर्भ में अगले सूत्र में समता के माध्यम से आत्म- प्रसन्नता की प्रेरणा दी गई है - इसका तात्पर्य यह है कि साधक मन-वचन काया की समता एकरूपता को देखे। दूसरों के देखते हुए पापकर्म न करने की तरह परोक्ष में भी न करना, समता है। इस प्रकार की समता से प्रेरित होकर जो साधक समय (आत्मा या सिद्धान्त) के प्रति वफादार रहते हुए लज्जा, भय आदि से भी पापकर्म नहीं करता, तप-त्याग एवं संयम का परिपालन करता है, उसमें उसका मुनित्व कारण हो जाता है।
'समय' के यहां तीन अर्थ फलित होते हैं । समता, आत्मा और सिद्धान्त । इन तीनों के परिप्रेक्ष्य में - इन तीनों को केन्द्र में रखकर साधक को पापकर्म त्याग की प्रेरणा यहाँ दी गई है। इसी से आत्मा प्रसन्न हो सकती है अर्थात् आत्मिक प्रसन्नता उल्लास का अनुभव हो सकता है। जिसके लिए यहाँ कहा गया है - 'अप्पाणं विप्पसादए । '
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'आगतिं गतिं परिण्णाय' का तात्पर्य यह है कि चार गतियाँ हैं, उनमें से किस गति का जीव कौन-कौन सी गति में आ सकता है और किस गति से कहाँ-कहाँ जा सकता है ? इसका ऊहापोह करना चाहिए। जैसे तिर्यंच और मनुष्य की आगति और गति (गमन) चारों गतियों में हो सकती है, किन्तु देव और नारक की आगति-गति तिर्यंच और मनुष्य इन दो ही गतियों से हो सकती है। किन्तु मनुष्य इन चारों गतियों में गमनागमन की प्रक्रिया को तोड़कर पंचम गति - मोक्षगति में भी जा सकता है, जहाँ से लौटकर वह अन्य किसी गति में नहीं जाता। उसका मूल कारण दो अन्तों - राग-द्वेष का लोप, नाश करना है। फिर उस विशुद्ध मुक्त आत्मा का लोक में कहीं भी छेदन - भेदनादि नहीं होता।
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१२४वें सूत्र की व्याख्या वृत्तिकार ने दार्शनिक, भौतिक और आध्यात्मिक साधना, इन तीनों दृष्टियों से की है। कुछ दार्शनिकों का मत है - भविष्य के साथ अतीत की स्मृति नहीं करना चाहिए। वे भविष्य और अतीत में कार्यकारण भाव नहीं मानते। कुछ दार्शनिकों का मन्तव्य है - जैसा जिस जीव का अतीत था, वैसा ही उसका भविष्य होगा। इनमें चिन्ता करने की क्या जरूरत है ?
तथागत (सर्वज्ञ) अतीत और भविष्य की चिन्ता नहीं करते, वे केवल वर्तमान को ही देखते हैं ।
मोह और अज्ञान से आवृत्त बुद्धि वाले कुछ लोग कहते हैं कि यदि जीव के नरक आदि जन्मों से प्राप्त या उस जन्म में बालक, कुमार आदि वय में प्राप्त दुःखादि का विचार स्मरण करें या भविष्य में इस सुखाभिलाषी जीव को क्या-क्या दुःख आएँगे ? इसका स्मरण - चिन्तन करेंगे तब तो वर्तमान में सांसारिक सुखों का उपभोग ही नहीं कर पाएँगे। जैसा कि वे कहते हैं -
आचा० टीका पत्र १५०
आचा० टीका पत्र १५०
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केण ममेत्थुप्पत्ती कहं इओ तह पुणो वि गंतव्वं ।
जो एत्तियं वि चिंतइ इत्थं सो को न निव्विण्णो ॥
भूतकाल से किस कर्म के कारण मेरी यहाँ उत्पत्ति हुई ? यहाँ से मरकर मैं कहाँ जाऊँगा ? जो इतना भी इस विषय में चिन्तन कर लेता है, वह संसार से उदासीन हो जाएगा, संसार के सुखों में उसे अरुचि हो जाएगी।
कई मिथ्याज्ञानी कहते हैं - "अतीत और अनागत के विषय में क्या विचार करना है ? इस प्राणी का जैसा