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तृतीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक: सूत्र १२२-१२४
आनन्द के विषय में) बिल्कुल ग्रहण रहित (अग्रह किसी प्रकार की पकड़ से दूर होकर विचरण करे। वह सभी प्रकार के हास्य आदि (प्रमादों) का त्याग करके इन्द्रियनिग्रह तथा मन-वचन-काया को तीन गुप्तियों से गुप्त ( नियंत्रित) करते हुए विचरण करे ।
विवेचन - सूत्र १२२ से १२४ तक सब में आत्मा के विकास, आत्म-समता, आत्म-शुद्धि, आत्म- प्रसन्नता, आत्म- जागृति, आत्म-रक्षा, पराक्रम, विषयों से विरक्ति, राग-द्वेष से दूर रहकर आत्म-रक्षण, आत्मा का अतीत और भविष्य, कर्म से मुक्ति, आत्मा की मित्रता, आत्म-निग्रह आदि आध्यात्मिक आरोहण का स्वर गूँज रहा है।
संधिं लोगस्स जाणित्ता - यह सूत्र बहुत ही गहन और अर्थ गम्भीर है। वृत्तिकार ने संधि के संदर्भ में इसकी व्याख्या अनेक प्रकार से की है
(१) उदीर्ण दर्शन मोहनीय के क्षय तथा शेष के उपशान्त होने से प्राप्त सम्यक्त्व भाव - सन्धि ।
(२) विशिष्ट क्षायोपशमिक भाव प्राप्त होने से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति रूप भाव - सन्धि ।
(३) चारित्र मोहनीय के क्षयोपशम से प्राप्त सम्यक् चारित्र रूप भाव- सन्धि ।
(४) सन्धि का अर्थ सन्धान, मिलन या जुड़ना है। कर्मोदयवश ज्ञान-दर्शन- चारित्र के टूटते हुए अध्यवसाय को पुनः जुड़ना या मिलना भाव - सन्धि है ।
(५) धर्मानुष्ठान का अवसर भी सन्धि कहलाता है ।
आध्यात्मिक ( क्षायोपशमिकादि भाव) सन्धि को जानकर प्रमाद करना श्रेयस्कर नहीं है, आध्यात्मिक लोक के तीन स्तम्भों - ज्ञान-दर्शन- चारित्र का टूटने से सतत रक्षण करना चाहिए। जैसे कारागार में बन्द कैदी के लिए दीवार में हुए छेद या बेड़ी को टूटी हुई जानकर, प्रमाद करना अच्छा नहीं होता, वैसे ही आध्यात्मिक लोक में मुमुक्षु के लिए भी इस जीवन को, मोह-कारागार की दीवार का या बन्धन का छिद्र जानकर क्षणभर भी पुत्र, स्त्री या संसार सुख के व्यामोह रूप प्रमाद में फँसे रहना श्रेयस्कर नहीं होता । १
'आयओ बहिया पास' का तात्पर्य है - तू अध्यात्मलोक को अपनी आत्मा तक ही सीमित मत समझ । अपनी आत्मा का ही सुख-दुःख मत देख । अपनी आत्मा से बाहर लोक में व्याप्त समस्त आत्माओं को देख । वे भी तेरे समान हैं, उन्हें भी सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है। इस प्रकार आत्म-समता की दृष्टि प्राप्त कर ।
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इसी बोधवाक्य की फलश्रुति अगले वाक्य - 'तम्हा ण हंता ण विघाताए' में दे दी है कि आत्मौपम्यभाव से सभी के दुःख-सुख को अपने समान जानकर किसी जीव का न तो स्वयं घात करे, न दूसरों से कराए।
अध्यात्मज्ञानी मुनि पाप कर्म का त्याग केवल काया से या वचन से ही नहीं करता, मन से भी करता है । ऐसी स्थिति में वह अपने त्याग के प्रति सतत वफादार रहता है। जो व्यक्ति किसी दूसरे के लिहाज, दबाव या भय से अथवा उनके देखने के कारण पापकर्म नहीं करता, किन्तु परोक्ष में छिपकर करता है, वह अपने त्याग के प्रति वफादार कहाँ रहा? यही शंका इस सूत्र ( जमिणं अण्णमण्णं.. सिया ? ) में उठायी गई है। इसमें से ध्वनि यही निकलती है कि जो व्यक्ति व्यवहार - बुद्धि से प्रेरित होकर दूसरों के भय, दबाव या देखते हुए पापकर्म नहीं करता, यह उसका सच्चा त्याग नहीं, क्योंकि उसके अन्तःकरण में पापकर्म-त्याग की प्रेरणा जगी नहीं है। इसलिए वह निश्चयदृष्टि से मुनि नहीं है, मात्र व्यवहारदृष्टि से वह मुनि कहलाता है। उसके पापकर्म त्याग में उसका मुनित्व कारण नहीं है ।
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आचा० टीका पत्र १४९ २. आचा० टीका पत्र १५०