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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
का अरती के आणंदे ? एत्थंति अग्गहे 'चरे ।
सव्वं हासं परिच्चज्ज अल्लीणगुत्तो परिव्वए । १२२. साधक (धर्मानुष्ठान की अपूर्व) सन्धि-बेला समझ कर (प्राणि-लोक को दुःख न पहुँचाए) अथवा प्रमाद करना उचित नहीं है।
अपनी आत्मा के समान बाह्य-जगत (दूसरी आत्माओं) को देख ! (सभी जीवों को मेरे समान ही सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है) यह समझकर मुनि जीवों का हमन न करे और न दूसरों से घात कराए।
जो परस्पर एक-दूसरे की आशंका से, भय से, या दूसरे के सामने (उपस्थिति में) लज्जा के कारण पाप कर्म नहीं करता, तो क्या ऐसी स्थिति में उस (पाप कर्म न करने) का कारण मुनि होता है ? (नहीं)
१२३. इस स्थिति में (मुनि) समता की दृष्टि से पर्यालोचन (विचार) करके आत्मा को प्रसाद - उल्लास युक्त रखे। ___ ज्ञानी मुनि अनन्य परम - (सर्वोच्च परम सत्य, संयम) के प्रति कदापि प्रमाद (उपेक्षा) न करे।
वह साधक सदा आत्मगुप्त (इन्द्रिय और मन को वश में रखने वाला) और वीर (पराक्रमी) रहे, वह अपनी संयम-यात्रा का निर्वाह परिमित - (मात्रा के अनुसार) आहार से करे। ___ वह साधक छोटे या बड़े रूपों - (दृश्यमान पदार्थों) के प्रति विरति धारण करे।
समस्त प्राणियों (नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति के जीवों) की गति और आगति को भली-भाँति जानकर जो दोनों अन्तों (राग और द्वेष) से दूर रहता है, वह समस्त लोक में किसी से (कहीं भी) छेदा नहीं जाता, भेदा नहीं जाता, जलाया नहीं जाता और मारा नहीं जाता।
____ १२४. कुछ (मूढमति) पुरुष भविष्यकाल के साथ पूर्वकाल (अतीत) का स्मरण नहीं करते। वे इसकी चिन्ता नहीं करते कि इसका अतीत क्या था, भविष्य क्या होगा? कुछ (मिथ्याज्ञानी) मानव यों कह देते हैं कि जो (जैसा) इसका अतीत था, वही (वैसा ही) इसका भविष्य होगा। किन्तु तथागत (सर्वज्ञ) (राग-द्वेष के अभाव के कारण). न अतीत के (विषय-भोगादि रूप) अर्थ का स्मरण करते हैं और न ही भविष्य के (दिव्यांगना-संगादि वैषयिक सुख) अर्थ का चिन्तन करते हैं। .
(जिसने कर्मों को विविध प्रकार से धूत-कम्पित कर दिया है, ऐसे) विधूत के समान कल्प - आचार वाला महर्षि इन्हीं (तथागतों) के दर्शन का अनुगामी होता है, अथवा वह क्षपक महर्षि वर्तमान का अनुदर्शी हो (पूर्व संचित) कर्मों का शोषण करके क्षीण कर देता है।
उस (धूत-कल्प) योगी के लिए भला क्या अरति है और क्या आनन्द है ? वह इस विषय में (अरति और १. इसके बदले चूर्णि में पाठ है - 'एत्थ पिअगरहे चरे' इसका अर्थ इस प्रकार किया है - 'रागदोसेहिं अगरहो, तन्निमित्तं जह
ण गरहिज्जति ण रज्जति दुस्सिति वा' - ग्रहण - (कर्मबन्धन) होता है राग और द्वेष से। राग-द्वेष को ग्रहण न करने पर अ
ग्रह हो जाएगा। अर्थात् मुनि विषयादि के निमित्त राग-द्वेष का ग्रहण नहीं करता - न राग से रक्त होता है, न द्वेष से द्विष्ट । २. 'अल्लीणगुत्तो' के स्थान पर 'आलीणगुत्ते' पाठ भी क्वचित् मिलता है। चूर्णिकार ने - 'अल्लीणगुत्तो' का अर्थ इस प्रकार
किया है- धर्म आयरियं वा अल्लीणो तिविहाए गुत्तीए गुत्तो-धर्म में तथा आचार्य में इन्द्रियादि को समेट कर लीन है और तीन गुप्तियों से गुप्त है।