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तृतीय अध्ययन
तइओ उद्देसओ
तृतीय उद्देशक
समता-दर्शन
१२२. संधिं लोगस्स जाणित्ता आयओ बहिया पास । तम्हा ण हंता ण विघातए । जमिणं अण्णमण्णवितिगिंछाए पडिलेहाए ण करेति पावं कम्मं किं तत्थ मुणी कारणं सिया ? १२३. समयं तत्थुवेहाए अप्पाणं विप्पसादए ।
अणण्णपरमं णाणी णो पमादे कयाइ वि । आयगुत्ते सदा वीरे जायामायाए जावए ॥१०॥
विरागं रूवेहिं.गच्छेज्जा महता खुड्डएहिं वा ।। आगतिं गतिं परिण्णाय दोहिं वि अंतेहिं अदिस्समाणेहिं से ण छिजति, ण भिजति, ण डझति, ण हम्मति कंचणं सव्वलोए। १२४. अवरेण पुव्वं ण सरंति एगे किमस्स तीतं किं वाऽऽगमिस्सं ।
भासंति एगे इह माणवा तु जमस्स तीतं तं आगमिस्सं ॥११॥ णातीतमटुंण य आगमिस्सं अटुं णियच्छंति तथागता उ । विधूतकप्पे एताणुपस्सी णिज्झोसइत्ता ।
१.
'मुणी कारणं' इस प्रकार के पदच्छेद किये हुए पाठ के स्थान पर 'मुणिकारणं' ऐसा एकपदीय पाठ चूर्णिकार को अभीष्ट है। इसकी व्याख्या यों की गई है वहाँ- तत्थ मुणिस्स कारणं, अद्दोहणातीति मुणिकारणाणि? ताणि तत्थ ण संति,"ण तत्थ मुणि कारणं सिया तत्थ वि ताव मुणि कारणं ण अत्थि। - क्या वहाँ (द्रोह या पाप) नहीं हुआ, उसमें मुनि का कारण है? द्रोह न हुए, इसीलिए वहाँ वे मुनि के कारण नहीं हुए हैं। शायद उसमें मुनि कारण नहीं है। वहाँ भी मुनि कारण नहीं
२.
नागार्जुनीय वाचना में यहाँ अधिक पाठ इस प्रकार है -
'विसयम्मि पंचगम्मी वि, दुविहम्मि तियं तियं ।
भावओ सठ्ठ जाणित्ता, से न लिप्पड दोस वि ॥' - शब्दादि पांच विषयों के दो प्रकार हैं - इष्ट, अनिष्ट। उनके भी तीन-तीन भेद हैं - हीन, मध्यम और उत्कृष्ट । इन्हें भावतः परमार्थतः भली-भांति जानकर वह (मुनि) पाप कर्म से लिप्त नहीं होता, क्योंकि वह उनमें राग और द्वेष नहीं करता। यहाँ चूर्णिकार का अभिमत पाठ यों है -
किह से अतीतं, किह आगमिस्सं ?
जह से अतीतं, तह आगमिस्सं । इन पंक्तियों का अर्थ प्रायः एक-सा है।