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'कालकंखी' - 1- साधक को मृत्यु की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि संलेखना के पांच अतिचारों में से एक है- 'मरणासंसप्पओगे' - मृत्यु की आशंसा-आकांक्षा न करना । फिर यहाँ उसे काल- कांक्षी बताने के पीछे क्या रहस्य है ? वृत्तिकार इस प्रश्न का समाधान यों करते हैं - काल का अर्थ है - मृत्युकाल, उसका आकांक्षी, अर्थात् - मुनि मृत्युकाल आने पर 'पंडितमरण' की आकांक्षा (मनोरथ) करने वोला होकर परिव्रजन ( विचरण ) करे । 'पंडितमरण' जीवन की सार्थकता है। पंडितमरण की इच्छा करना मृत्यु को जीतने की कामना है।
तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक: सूत्र ११८
अतीत की बातों को आत्म शुद्धि या दोष- परिमार्जन की दृष्टि से याद करना साधक के लिए आवश्यक है । इसलिए यहाँ शास्त्रकार ने साधक को स्मरण दिलाया है - 'बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं' - इस आदेश सूत्र के परिप्रेक्ष्य में साधक पाप कर्म की विभिन्न प्रकृतियों, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश, उन पापकर्मों से मिलने वाला फल-बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता, निर्जरा और कर्मक्षय आदि पर गहराई से चिन्तन करे । १
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असंयत की व्याकुल चित्तवृत्ति
११७वें सूत्र में साधक को सत्य में स्थिर रहने का अप्रतिम महत्त्व समझाया है। वृत्तिकार ने विभिन्न दृष्टियों से सत्य के अनेक अर्थ किये हैं
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(१) प्राणियों के लिए जो हित है, वह सत्य है - वह है संयम ।
(२) जिनेश्वर देव द्वारा उपदिष्ट आगम भी सत्य है, क्योंकि वह यथार्थ वस्तु स्वरूप को प्रकाशित करता है । (३) वीतराग द्वारा प्ररूपित विभिन्न प्रवचन रूप आदेश भी सत्य हैं । २
११८. अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहइ पूरइत्तए ।
से अण्णवहाए अण्णपरियावाए अण्णपरिग्गहाए जणवयवहाए जणवयपरिवायाएर जणवयपरिग्गहाए ।
११८. वह (असंयमी) पुरुष अनेक चित्त वाला है। वह चलनी को (जल से) भरना चाहता है ।
वह (तृष्णा की पूर्ति के लिए व्याकुल मनुष्य) दूसरों के वध के लिए, दूसरों के परिताप के लिए, दूसरों के परिग्रह के लिए तथा जनपद के वध के लिए, जनपद के परिताप के लिए और जनपद के परिग्रह के लिए (प्रवृत्ति करता है)।
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विवेचन - इस सूत्र में विषयासक्त असंयमी पुरुष की अनेकचित्तता - व्याकुलता तथा विवेक-हीनता एवं उसके कारण होने वाले अनर्थों का दिग्दर्शन है।
वृत्तिकार ने संसार सुखाभिलाषी पुरुष को अनेकचित्त बताया है, क्योंकि वह लोभ से प्रेरित होकर कृषि, व्यापार, कारखाने आदि अनेक धंधे छेड़ता है, उसका चित्त रात-दिन उन्हीं अनेक धंधों की उधेड़बुन में लगा रहता
है ।
आचा० शीला० टीका पत्रांक १४७
आचा० शीला० टीका पत्रांक १४७
चूर्णि के अनुसार 'जयवयपरितावाए' पाठ भी है, उसका अर्थ चूर्णिकार ने किया है- 'पररट्ठमद्दणे वा रायाणो जणवयं परितावयंति' - परराष्ट्र का मर्दन करने के लिए राजा लोग जनपद या जनपदों को संतप्त करते हैं। वृत्तिकार ने 'जनपदानां परिवादाय' अर्थ किया है, अर्थात् जनपदनिवासी लोगों के परिवाद ( बदनाम करने) के लिए यह चुगलखोर है, जासूस है, चोर है, लुटेरा है, इस प्रकार मर्मोद्घाटन के लिए प्रवृत्त होते हैं।