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करता है ।
'अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे' इस पद में आये- 'अग्र' और 'मूल' शब्द के यहाँ कई अर्थ होते हैं -
वेदनीयादि चार अघातिकर्म अग्र हैं, मोहनीय आदि चार घातिकर्म मूल हैं।
आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध
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• मोहनीय सब कर्मों का मूल है, शेष सात कर्म अग्र हैं ।
मिथ्यात्व मूल है, शेष अव्रत - प्रमाद आदि अग्र हैं।
धीर साधक को कर्मों के, विशेषतः पापकर्मों के अग्र (परिणाम या आगे के शाखा प्रशाखा रूप विस्तार) और मूल (मुख्य कारण या जड़) दोनों पर विवेक-बुद्धि से निष्पक्ष होकर चिन्तन करना चाहिए। किसी भी दुष्कर्मजनित संकटापन्न समस्या के केवल अग्र (परिणाम) पर विचार करने से वह सुलझती नहीं, उसके मूल पर ध्यान देना चाहिए। कर्मजनित दुःखों का मूल (बीज) मोहनीय है, शेष सब उसके पत्र - पुष्प हैं।
इस सूत्र का एक और अर्थ भी वृत्तिकार ने किया है - दुःख और सुख के कारणों पर, विवेक बुद्धि से. सुशोभित धीरयों विचार करे इनका मूल है असंयम या कर्म और अग्र
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१.
२.
'पलिछिंदियाणं णिक्कम्मदंसी' का भावार्थ बहुत गहन है। तप और संयम के द्वारा राग-द्वेषादि बन्धनों को या उनके कार्यरूप कर्मों को सर्वथा छिन्न करके आत्मा निष्कर्मदर्शी हो जाता है। निष्कर्मदर्शी के चार अर्थ हो सकते हैं: - (१) कर्मरहित शुद्ध आत्मदर्शी, (२) राग-द्वेष के सर्वथा छिन्न होने से सर्वदर्शी, (३) वैभाविक क्रियाओं (कर्मों-व्यापारों) के सर्वथा न होने से अक्रियादर्शी और (४) जहाँ कर्मों का सर्वथा अभाव है, ऐसे मोक्ष का द्रष्टा ।
११६वें सूत्र में मृत्यु से मुक्त आत्मा की विशेषताओं और उसकी चर्या के उद्देश्य का दिग्दर्शन कराया गया है।
आचा० टीका पत्रांक १४५
आचा० टीका पत्रांक १४५
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• संयम-तप, या मोक्ष ।
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'दिट्टभए या दिट्ठपहे' - दोनों ही पाठ मिलते हैं। 'दिट्ठभए' पाठ अधिक संगत लगता है, क्योंकि प्रस्तुत सूत्र में भय की चर्चा करते हुए कहा है - "मुनि इस जन्म-मरणादि रूप संसार का अवलोकन गहराई से करता है तो वह संसार में होने वाले जन्म-मरण, जरा-रोग आदि समस्त भयों का दर्शन - मानसिक निरीक्षण कर लेता है । फलतः वह संसार के चक्र में नहीं फँसता, उनसे बचने का प्रयत्न करता है।" आगे के 'लोगंसि परमदंसी विवित्तजीवी' आदि विशेषण उसी संदर्भ में अंकित किये गये हैं ।
'दिपहे' पाठ अंगीकृत करने पर अर्थ होता है - जिसने मोक्ष का पथ देख लिया है, अथवा जो इस पथ का अनुभवी है।
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सूत्र ११२ से ११७ तक शास्त्रकार का एक ही स्वर गूँज रहा है - ज्ञाता-द्रष्टा बनो। ज्ञाता द्रष्टा का अर्थ है अपने मन की गहराइयों में उतर कर प्रत्येक वस्तु या विचार को जानो-देखो, चिन्तन करो, परन्तु उसके साथ राग और द्वेष को या इनके किसी परिवार को मत मिलाओ, तटस्थ होकर वस्तुस्वरूप का विचार करो, इसी का नाम ज्ञाता-द्रष्टा बनना है। इन सूत्रों में चार प्रकार के द्रष्टा (दर्शी) बनने का उल्लेख है - (१) समत्वदर्शी या सम्यक्त्वदर्शी, (२) आत्मदर्शी, (३) निष्कर्मदर्शी और (४) परमदर्शी। इसी प्रकार दृष्टभय / दृष्टपथ, अग्र और मूल का विवेक कर जन्म, वृद्धि, प्राणियों के साथ सुख-दुःख में ममत्व तथा आत्मैकत्व के प्रतिप्रेक्षण आदि में भी द्रष्टा- ज्ञाता बनने का संकेत
है ।