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________________ तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र ११२-११७ है - महारम्भ-महापरिग्रह के कारण वह पुनः-पुनः नरकादि के या इस लोक के भयों का दर्शन (अनुभव) किया करता है। चार पुरुषार्थों में कामरूप पुरुषार्थ जन साध्य होता है, तब उसका साधन बनता है - अर्थ। इसलिए कामभोगों की आसक्ति मनुष्य को विविध उपभोग्य धनादि अर्थों – पदार्थों के संग्रह के लिए प्रेरित करती है। वह आसक्ति-महारंभ-महापरिग्रह का मूल प्रेरक तत्त्व है। _ 'संसिच्चमाणा पुणरेंति गभं' में बताया है - हिंसा, झूठ, चोरी, काम-वासना, परिग्रह आदि पाप या कर्म की जड़ें हैं। उन्हें जो पापी लगातार सींचते रहते हैं, वे बार-बार विविध गतियों और योनियों में जन्म लेते रहते हैं। ११४वें सूत्र में प्राणियों के वध आदि के निमित्त विनोद और उससे होने वाली वैर-वृद्धि का संकेत किया गया the कई महारंभी-महापरिग्रही मनुष्य दूसरों को मारकर, सताकर, जलाशय में डुबाकर, कोड़ों आदि से पीटकर या सिंह आदि हिंस्र पशुओं के समक्ष मनुष्य को मरवाने के लिए छोड़कर अथवा यज्ञादि में निर्दोष पशु-पक्षियों की बलि देकर या उनका शिकार करके अथवा उनकी हत्या करके क्रूर मनोरंजन करते हैं । इसी प्रकार कई लोग झूठ बोलकर, चोरी करके या स्त्रियों के साथ व्यभिचार करके या दूसरे का धन, मकान आदि हडप करके या अपने कब्जे में करके हास-विनोद या प्रमोद की अनुभूति करते हैं। ये सभी दूसरे प्राणियों के साथ अपना वैर (शत्रुभाव) बढ़ाते रहते हैं। . 'अलं बालस्स संगण' के दो अर्थ स्पष्ट होते हैं - एक अर्थ जो वृत्तिकार ने किया है, वह इस प्रकार है - "ऐसे मूढ अज्ञ पुरुष का हास्यादि, प्राणातिपातादि तथा विषय-कषायादिरूप संग न करे, इनका संसर्ग करने से वैर की वृद्धि होती है। दूसरा अर्थ यह भी होता है कि ऐसे विवेकमूढ अज्ञ (बाल) का संग (संसर्ग) मत करो; क्योंकि इससे साधक की बुद्धि भ्रष्ट हो जाएगी, मन की वृत्तियाँ चंचल होंगी। वह भी उनकी तरह विनोदवश हिंसादि पाप करने को देखादेखी प्रेरित हो सकता है।" आतंकदर्शी पाप नहीं करता, इसका रहस्य है - 'कर्म या हिंसा के कारण दुःख होता है' - जो यह जान लेता है, वह आतंकदर्शी है, वह स्वयं पापानुबन्धी कर्म नहीं करता, न दूसरों से कराता है, न करने वाले का अनुमोदन १.. हंसी-मजाक से भी कई बार तीव्र वैर बंध जाता है। वृत्तिकार ने समरादित्य कथा के द्वारा संकेत किया है कि गुणसेन ने अग्निशर्मा की अनेक तरह से हंसी उड़ाई, इस पर दोनों का वैर बंध गया, जो नौ जन्मों तक लगातार चला। -आचा० टीका पत्रांक १४५ 'अलं बालस्स संगणं' इस सूत्र का एक अर्थ यह भी सम्भव है - बाल - अज्ञानी जन का संग - सम्पर्क मत करो; क्योंकि अज्ञानी विषयासक्त मनुष्य का संसर्ग करने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, जीवन में अनेक दोषों और दुर्गुणों तथा उनके कुसंस्कारों के प्रविष्ट होने की आशंका रहती है। अपरिपक्व साधक को अज्ञानीजन के सम्पर्क से ज्ञान-दर्शन-चारित्र से भ्रष्ट होते देर नहीं लगती। उत्तराध्ययन (३२।५) में स्पष्ट कहा है - न वा लभेज्जा निउणं सहायं गुणाहियं वा गुणओ समं वा । एक्को वि पावाई विवजयंतो विहरेज कामेसु असजमाणी॥ "यदि निपुण ज्ञानी, गुणाधिक या सम-गुणी का सहाय प्राप्त न हो तो अनासक्त भावपूर्वक अकेला ही विचरण करे, किन्तु अज्ञानी का संग न करे।"
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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