________________
आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
बौद्धदर्शन में भी त्रिविद्या का निरूपण इस प्रकार है - (१) पूर्वजन्मों को जानने का ज्ञान, (२) मृत्यु तथा जन्म को (इनके दुःख को) जानने का ज्ञान, (३) चित्त मलों के क्षय का ज्ञान । इन तीन विद्याओं को प्राप्त कर लेने वाले को वहाँ 'तिविज' (विद्य) कहा है।
दूसरा पाठान्तर है - 'अतिविजे' - इसका अर्थ वृत्तिकार ने यों किया है - जिसकी विद्या जन्म, वृद्धि, सुख-दुःख के दर्शन से अतीव तत्त्व विश्लेषण करने वाली है, यह अतिविद्य अर्थात् उत्तम ज्ञानी है।
___ इन दोनों संदर्भो में वाक्य का अर्थ होता है - इसलिए वह विद्य या अतिविद्य (अति विद्वान्) परम को जानकर..." यहाँ अतिविद्य या त्रिविद्य परम का विशेषण है, इसलिए अर्थ होता है - अतीव तत्त्व ज्ञान से युक्त या तीन विद्याओं से सम्बन्धित परम को जानकर"।
'परम' के अनेक अर्थ हो सकते हैं - निर्वाण, मोक्ष, सत्य (परमार्थ)। समयग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र भी परम के साधन होने से परम माने गये हैं।
'समत्तदंसी' - जो समत्वदर्शी है, वह पाप नहीं करता, इसका तात्पर्य यह है कि पाप और विषमता के मूल कारण राग और द्वेष हैं । जो अपने भावों को राग-द्वेष से कलुषित मिश्रित नहीं करता और न ही किसी प्राणी को रागद्वेषयुक्त दृष्टि से देखता है, वह समत्वदर्शी होता है । वह पाप कर्म के मूल कारण - राग-द्वेष को अन्तःकरण में आने नहीं देता, तब उससे पाप कर्म होगा ही कैसे ?
'सम्मत्तदंसी' का एक रूप 'सम्यक्त्वदर्शी' भी होता है। * सम्यक्त्वदर्शी पापाचरण नहीं करता, इसका रहस्य यही है कि पाप कर्म की उत्पत्ति, उसके कटु परिणाम और वस्तु के यथार्थ स्वरूप का सम्यग् ज्ञान जिसे हो जाता है, वह सत्यदृष्टा असम्यक् (पाप का) आचरण कर ही कैसे सकता है ?
११३वें सूत्र में पाप कर्मों का संचय करने वाले की वृत्ति, प्रवृत्ति और परिणति (फल) का दिग्दर्शन कराया गया है। _ 'पाश' का अर्थ बंधन है। उसके दो प्रकार हैं - द्रव्यबन्धन और भावबन्धन । यहाँ मुख्य भावबन्धन है। भावबन्धन राग, मोह, स्नेह, आसक्ति, ममत्व आदि हैं। ये ही साधक को जन्म-मरण के जाल में फंसाने वाले पाश
____ 'आरंभजीवी उभयाणुपस्सी' पद में महारम्भ और उसका कारण महापरिग्रह दोनों का ग्रहण हो जाता है। मनुष्यों - मयों के साथ पाश - बंधन को तोड़ने का कारण यहाँ आरंभजीवी आदि पदों से बताया गया है। जो आरंभजीवी होता है, वह उभयलोक (इहलोक-परलोक) को या उभय (शरीर और मन दोनों) को ही देख पाता है, उससे ऊपर उठकर नहीं देखता । अथवा 'उ' को पृथक् मानने से 'भयाणुपस्सी' पाठ भी होता है, जिसका अर्थ होता
त्रैविध का उल्लेख जैसे बौद्ध साहित्य में मिलता है, वैसे वैदिक साहित्य में भी मिलता है। देखिये- भगवद्गीता अ०१ में २०वां श्लोक -"त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा, यज्ञैरिष्टवा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।" यहाँ त्रिविद्या का अर्थ वैसा ही कुछ होना चाहिए जैसा कि जैनशास्त्र में पूर्वजन्म-दर्शन, विकास-दर्शन तथा प्राणिसमत्व-दर्शन, आत्मौपम्य-सुख-दुःख दर्शन है। आवश्यक नियुक्ति (गा० १०४६) में सम्यक्त्व को समत्व का पर्यायवाची बताया है -
"समया संमत्त-पसत्य-संति-सिव-हिय-सहं अणिंदं च। अद[छि अमगरहिअं अणवजमिमेऽवि एगट्ठ ॥"