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________________ आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध अनेकचित्त पुरुष अतिलोभी बनकर कितनी बड़ी असम्भव इच्छा करता है, इसके लिए शास्त्रकार चलनी का दृष्टान्त देकर समझाते हैं कि वह चलनी को जल से भरना चाहता है, अर्थात् चलनी रूप महातृष्णा को धनरूपी जल से भरना चाहता है। वह अपने तृष्णा के खप्पर को भरने हेतु दूसरे प्राणियों का वध करता है, दूसरों को शारीरिक, मानसिक संताप देता है, द्विपद (दास - दासी, नौकर-चाकर आदि), चतुष्पद (चौपाये जानवरों) का संग्रह करता हैं, इतना ही नहीं, वह अपार लोभ से उन्मत्त होकर सारे जनपद या नागरिकों का संहार करने पर उतारू हो जाता है, उन्हें नाना प्रकार से यातनाएँ देने को उद्यत हो जाता है, अनेक जनपदों को जीतकर अपने अधिकार में कर लेता है। यह है - तृष्णाकुल मनुष्य की अनेक चित्तता - किंवा व्याकुलता का नमूना । संयम में समुत्थान ९४ १. २. ३. ४. ५. ११९. आसेवित्ता एयमट्टं इच्चेवेगे समुट्ठिता । ६. ७. तम्हा तं बिइयं नासेवते णिस्सारं पासिय णाणी । उववायं चयणं णच्चा अणण्णं चर माहणे । ११९. इस प्रकार कई व्यक्ति इस अर्थ ( वध, परिताप, परिग्रह आदि असंयम) का आसेवन - आचरण करके (अन्त में) संयम - साधना में संलग्न हो जाते हैं । इसलिए वे (काम-भोगों को, हिंसा आदि आस्रवों को छोड़कर) फिर दुबारा उनका आसेवन नहीं करते। से ण छणे, न छणावए, छणंतं णाणुजाणति । २ णिव्विद दिं अरते पयासु अणोमदंसी णिसण्णे पावेहिं' कम्मेहिं । १२०. कोधादिमाणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे णिरयं महंतं । तम्हा हि वीरे विरते वधातो, छिंदिज्ज सोतं लहुभूयगामी ॥ ८ ॥ १२१. गंथं परिण्णाय इहज्ज' वीरे, सोयं परिण्णाय चरेज्ज दंते । उम्मुग्ग' लधुं इह माणवेहिं, णो पाणिणं पाणे समारंभेज्जासि ॥ ९ ॥ . त्ति बेमि । ॥ बीओ उद्देसओ सम्मत्तो ॥ - - 'बिइयं नो सेवते', 'बीयं नो सेवे', 'बितियं नासेवए' - ये पाठान्तर मिलते हैं। चूर्णिकार इस वाक्य का अर्थ करते हैं. "द्वितीयं मृषावादमसंयमं वा नासेवते " - दूसरे मृषावाद का या असंयम (पाप) का सेवन नहीं करता। 'णिव्विज्ज' पाठ भी मिलता है, जिसका अर्थ है - विरक्त होकर । 'पावेसु कम्मेसु ' पाठ चूर्णि में है, जिसका अर्थ है - 'पावं कोहादिकसाया तेसु' - पाप है क्रोधादि कषाय उनमें । चूर्णि में इसके स्थान पर 'छिंदिज्ज सोतं ण हु भूतगामं' पाठ मिलता है। उत्तरार्ध का अर्थ यों है - ईर्यासमिति आदि से युक्त साधक १४ प्रकार के भूतग्राम (प्राणि - समूह) का छेदन न करे। 'इहऽज्ज' के स्थान पर 'इह वज्ज' एवं 'इहेज्ज' पाठ भी मिलते हैं। 'इह अज्ज' का अर्थ चूर्णिकार ने किया है- "इह पवयणे, अज्जेव मा चिरा" - इस प्रवचन में आज ही - बिल्कुल विलम्ब किये बिना प्रवृत्त हो जाओ । 'सोगं', 'सोतं' पाठान्तर भी हैं, 'सोगं' का अर्थ शोक है। 'उम्मुर्ग' के स्थान पर 'उम्मग्ग' भी मिलता है, जिसका अर्थ होता है - उन्मज्जन ।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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