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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
विपाकरूप दुःख को) जान और उनके साथ अपने सुख (दुःख) का पर्यालोचन कर। इससे त्रैविद्य (तीन विद्याओं का ज्ञाता) या अतिविद्य बना हुआ साधक परम (मोक्ष) को जानकर (समत्वदर्शी हो जाता है)। समत्वदर्शी पाप (हिंसा आदि का आचरण) नहीं करता।
११३. इस संसार में मनुष्यों के साथ पाश (रागादि बन्धन) है, उसे तोड़ डाल; क्योंकि ऐसे लोग (काम-भोगों की लालसा से, उनकी प्राप्ति के लिए) हिंसादि पापरूप आरंभ करके जीते हैं और आरंभजीवी पुरुष इहलोक और परलोक (उभय) में शारीरिक, मानसिक काम-भागों को ही देखते रहते हैं, अथवा आरंभजीवी होने से वह दण्ड आदि के भय का दर्शन (अनुभव) करते रहते हैं। ऐसे काम-भोगों में आसक्त जन (कर्मों का) संचय करते रहते हैं। (आसक्ति रूप कर्मों की जड़ें) बार-बार सींची जाने से वे पुनः-पुनः जन्म धारण करते हैं।
११४. वह (काम-भोगासक्त मनुष्य) हास्य-विनोद के कारण प्राणियों का वध करके खुशी मनाता है। बालअज्ञानी को इस प्रकार के हास्य आदि विनोद के प्रसंग से क्या लाभ है ? उससे तो वह (उन जीवों के साथ) अपना वैर ही बढ़ाता है। .
११५. इसलिए अति विद्वान् (उत्तम ज्ञानी) परम-मोक्ष पद को जान कर (हिंसा आदि में नरक आदि का आतंक-दुःख देखता है) जो (हिंसा आदि पापों में) आतंक देखता है, वह पाप (हिंसा आदि पाप कर्म का आचरण) नहीं करता। ... हे धीर ! तू (इस आतंक-दुःख के) अग्र और मूल का विवेक कर उसे पहचान ! वह धीर (साधक) (तप और संयम द्वारा रागादि बन्धनों को) परिच्छिन्न करके स्वयं निष्कर्मदर्शी (कर्मरहित सर्वदर्शी) हो जाता है।
.११६. वह (निष्कर्मदर्शी) मरण से मुक्त हो जाता है। वह (निष्कर्मदर्शी) मुनि भय को देख चुका है (अथवा उसने मोक्ष पथ को देख लिया है)। - वह (आत्मदर्शी मुनि) लोक (प्राणि-जगत) में परम (मोक्ष या उसके कारण रूप संयम) को देखता है। वह विविक्त - (राग-द्वेष रहित शुद्ध) जीवन जीता है। वह उपशान्त, (पांच समितियों से) समित (सम्यक् प्रवृत्त) (ज्ञान आदि से) सहित (समन्वित) होता। (अतएव) सदा संयत (अप्रमत्त-यतनाशील) होकर, (पण्डित) मरण की आकांक्षा करता हुआ (जीवन के अन्तिम क्षण तक) परिव्रजन - विचरण करता है।
(इस जीव ने भूतकाल में) अनेक प्रकार के बहुत से पापकर्मों का बन्ध किया है।
११७. (उन कर्मों को नष्ट करने हेतु) तू सत्य में धृति कर। इस (सत्य) में स्थिर रहने वाला मेधावी समस्त पापकर्मों का शोषण (क्षय) कर डालता है।
विवेचन - इन सब सूत्रों में बन्ध और मोक्ष तथा उनके कारणों से सम्बन्धित परम बोध दिया गया है।
११२वें सूत्र में जन्म और वृद्धि को देखने की प्रेरणा दी गयी है, उसका तात्पर्य यह है कि जिनवाणी के आधार पर अपने पूर्वजन्मों के विषय में चिन्तन करे कि मैं एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों में तथा नारक, तिर्यंच, देव आदि योनियों में अनेक बार जन्म लेकर फिर यहाँ मनुष्य-लोक में आया हूँ। उन जन्मों में मैंने कितने-कितने दुःख सहे होंगे? साथ ही वह यह भी जाने कि मैं कितनी निर्जरा और प्रचुर पुण्यसंचय के फलस्वरूप एकेन्द्रिय से विकास करते-करते इस मनुष्य-योनि में आया हूँ, कितनी पुण्यवृद्धि की होगी, तब मनुष्य-लोक में भी आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल, पंचेन्द्रिय पूर्णता, उत्तम संयोग, दीर्घ-आयुष्य, श्रेष्ठ संयमी जीवन आदि पाकर इतनी उन्नति कर सका हूँ।