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तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र ११२-११७
'लोक' से यहाँ तात्पर्य - रागादि मोहित लोक या विषय-कषायलोक से है। 'परक्कमेजासि' - से संयम, तप, त्याग, धर्माचरण आदि में पुरुषार्थ करने का निर्देश है।
॥प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
बीओ उद्देसओ
द्वितीय उद्देशक बंध-मोक्ष-परिज्ञान .११२. जातिं च बुद्धिं च इहऽज पास, भूतेहिं जाण पडिलेह सातं।
तम्हाऽतिविजं परमं ति णच्चा सम्मत्तदंसी ण करेति पावं ॥४॥ ११३. उम्मुंच पासं इंह मच्चिएहि, आरंभजीवी २ उभयाणुपस्सी ।।
कामेसु गिद्धा णिचयं करेंति, संसिच्चमाणा पुणरेंति गब्भं ॥५॥ ११४. अवि से हासमासज, हंता णंदीति मण्णति । .
अलं बालस्स संगेणं, वेरं वड्डेति अप्पणो ॥६॥ ११५. तम्हाऽतिविज परमं ति णच्चा, आयंकदंसी ण करेति पावं।
. अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे, पलिछिंदियाणं णिक्कम्मदंसी ॥७॥ ११६. एस मरणा पमुच्चति, से हु दिट्ठभये मुणी ।
लोगंसि परमदंसी विवित्तजीवी उवंसते समिते सहिते सदा जते कालकंखी परिव्वए ।
बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं । ११७. सच्चमि धितिं कुव्वह । एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावं कम्मं झोसेति । ११२. हे आर्य ! तू इस संसार में जन्म और वृद्धि को देख। तू प्राणियों (भूतग्राम) को (कर्मबन्ध और उसके
१. 'अतिविज' के स्थान पर चूर्णि में 'तिविजो' पाठ है जिसका अर्थ है - तीन विद्याओं का ज्ञाता। २. 'आरंभजीवी उभयाणुपस्सी' पाठ के स्थान पर आरम्भजीवी तुभयाणुपस्सी' पाठ चूर्णि में मिलता है, जिसका अर्थ है - .. जो व्यक्ति महारम्भी-महापरिग्रही है - वह अपने समक्ष वध, बन्ध, निरोध, मृत्यु आदि का भय देखता है।
भदन्त नागार्जुनीय वाचनानुसार यहाँ पाठ है - 'मूलं च अग्गं च वियेत्तु वीर, कम्मासवा वेति विमोक्खणं च। अविरता अस्सवे जीवा, विरताणिजति।' अर्थात् - "हे वीर ! मूल और अग्र का विवेक कर, कर्मों के आश्रव (आस्रव) और कर्मों
से विमोक्षण (मुक्ति) का भी विवेक कर। अविरत जीव आत्रवों में रत रहते हैं, विरत कर्मों की निर्जरा करते हैं।" ४. "दिनुभये' के स्थान पर 'दिट्ठवहे' और 'दिट्ठपहे' पाठान्तर मिलते हैं। .