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________________ आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध ८६ और) जो क्षण - हिंसा है, उसका भलीभाँति निरीक्षण करके (परित्याग करे) । इन सबका (पूर्वोक्त कर्म और उनसे सम्बन्धित कारण और निवारण का ) सम्यक् निरीक्षण करके संयम ग्रहण करे तथा दो (राग और द्वेष ) अन्तों से अदृश्य (दूर) होकर रहे । मेधावी साधक उसे (राग-द्वेषादि को ) ज्ञात करके (ज्ञपरिज्ञा से जाने और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से छोड़े ।) वह मतिमान् साधक (रागादि से मूढ या विषय- कषाय से ग्रस्त) लोक को जानकर लोक-संज्ञा (विषयैषणा, वित्तैषणा, लोकैषणा आदि) का त्याग करके (संयमानुष्ठान में) पराक्रम करे। - ऐसा मैं कहता हूँ । विवेचन- इन दोनों सूत्रों में कर्म और उसके संयोग से होने वाली आत्मा की हानि, कर्म के उपादान (रागद्वेष), बन्ध के मूल कारण आदि को भलीभाँति जानकर उसका त्याग करने का निर्देश किया है । अन्त में कर्मों के बीज - राग और द्वेष रूप दों अन्तों का परित्याग करके (विषय- कषायरूप लोक ) को जानकर लोक-संज्ञा को छोड़कर संयम में उद्यम करने की प्रेरणा दी है। जो सर्वथा कर्ममुक्त हो जाता है, उसके लिए नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव, बाल, वृद्ध, युवक, पर्याप्तक, अपर्याप्तक आदि व्यवहार - व्ययपदेश (संज्ञाएं) नहीं होता । जो कर्मयुक्त है, उसके लिए ही कर्म को लेकर, नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य आदि की या एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक की, मन्दबुद्धि, तीक्ष्णबुद्धि, चक्षुदर्शनी आदि, सुखी - दुःखी, सम्यग्दृष्टि - मिध्यादृष्टि, स्त्री-पुरुष, अल्पायुदीर्घायु, सुभग- दुर्भग, उच्चगोत्री - नीचगोत्री, कृपण - दानी, सशक्त अशक्त आदि उपाधि - व्यवहार या विशेषण होता है। इन सब विभाजनों (विभेदों और व्यवहारों) का हेतु कर्म है, इसलिए कर्म ही उपाधि का कारण है । 'कम्मं च पडिलेहाए' का तात्पर्य है कर्म का स्वरूप, कर्मों की मूल प्रकृति, उत्तरप्रकृतियों, कर्मबन्ध के कारण, प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेश रूप बन्ध के प्रकार, कर्मों का उदय, उदीरणा, सत्ता आदि तथा कर्मों के क्षय एवं आस्रव-संवर के स्वरूप का भलीभाँति चिन्तन-निरीक्षण करके कर्मों को क्षय करने का प्रयत्न करना चाहिए। 'कम्ममूलं च जं छणं, पडिलेहिय' का अर्थ है - कर्मबन्ध के मूल कारण पांच हैं - (१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय और (५) योग। इन कर्मों के मूल का विचार करे । 'क्षण' का अर्थ क्षणन हिंसन है, अर्थात् प्राणियों की पीड़ाकारक जो प्रवृत्ति है, उसका भी निरीक्षण करे एवं परित्याग करे। इसका एक सरल अर्थ यह भी होता है - कर्म का मूल हिंसा है अथवा हिंसा का मूल कर्म है। दो अन्त अर्थात् किनारे हैं - राग और द्वेष । - 'अदिस्समाणे' का शब्दश: अर्थ होता है - अदृश्यमान। इससे सम्बन्धित वाक्य का तात्पर्य है - राग और द्वेष से जीव दृश्यमान होता है, शीघ्र पहिचान लिया जाता है, परन्तु वीतराग राग और द्वेष इन दोनों से दृश्यमान नहीं होता। अथवा यहाँ साधक को यह चेतावनी दी गयी है कि वह राग और द्वेष- इन दोनों अन्तों का स्पर्श करके रागी और द्वेषी संज्ञा से (अदिश्यमान) व्यपदिष्ट न हो । 'लोक - संज्ञा' का भावार्थ यों है - प्राणिलोक की आहारादि चार संज्ञाएँ अथवा दस संज्ञाएँ। वैदिक धर्मग्रन्थों में वित्तैषणा, कामैषणा (पुत्रैषणा) और लोकैषणा रूप जो तीन एषणाएँ बताई हैं, वे भी लोकसंज्ञा हैं । लोकसंज्ञा का संक्षिप्त अर्थ 'विषयासक्ति' भी हो सकता है।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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