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तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र १०९-१११
. 'खेयण्णे' - इसके संस्कृत में दो रूप बनते हैं - खेदज्ञ और क्षेत्रज्ञ । यहाँ 'खेयण्णे' का 'क्षेत्रज्ञ' रूप अधिक संगत प्रतीत होता है और क्षेत्र का अर्थ आत्मा या आकाश की अपेक्षा अन्तस् (हार्द) अर्थ प्रसंगानुसारी मालूम होता है।
शस्त्र और अशस्त्र से यहाँ असंयम और संयम अर्थ का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि असंयम - विभिन्न विषय-भोगों में होने वाली आसक्ति से शस्त्र है और संयम पापरहित अनुष्ठान होने से अशस्त्र है। निष्कर्ष यह है कि शस्त्र घातक होता है, अशस्त्र अघातक। जो इष्ट-अनिष्ट शब्दादि विषयों के सभी पर्यायों (प्रकारों या विकल्पों) को, उनके संयोग-वियोग को शस्त्रभूत - असंयम को जानता है, वह संयम को अविघातक एवं स्वपरोपकारी होने से अशस्त्रभूत समझता है। शस्त्र और अशस्त्र दोनों को भलीभाँति जानकर अशस्त्र को प्राप्त करता है, शस्त्र का त्याग करता है। लोक-संज्ञा का त्याग
११०. अकम्मस्स ववहारो ण विज्जति । कम्मुणा ' उवाधि जायति । १११. कम्मं च पडिलेहाए कम्ममूलं च जं छणं,२
पडिलेहिय सव्वं समायाय दोहिं अंतेहिं अदिस्समाणे तं परिण्णाय मेधावी विदित्ता लोग वंता लोगसण्णं से मतिमं परक्कमेजासि त्ति बेमि ।
॥पढमो उद्देसओ समत्तो॥ ११०. कर्मों से मुक्त (अकर्म-शुद्ध) आत्मा के लिए कोई व्यवहार नहीं होता। कर्म से उपाधि होती है। १११. कर्म का भलीभांति पर्यालोचन करके (उसे नष्ट करने का प्रयत्न करे)। कर्म का मूल (मिथ्यात्व आदि "उवहि', 'कम्मुणा उवधि', इस प्रकार के पाठान्तर भी मिलते हैं। चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है- "कम्मुणा उवधि, उवधी तिविहो-आतोवही, कम्मोवही, सरीरोवही तत्थ अप्पा दुप्पउत्तो आतोवही,ततो कम्मोवही भवति, ततो सरीरोवही भवति, सरीरोवहीओ य ववहरिजति, तंजहा"नेरइओ एवमादि।" कर्म से उपधि होती है। उपधि तीन प्रकार की है - आत्मोपधि, कर्मोपधि और शरीरोपधि। जब आत्मा विषय-कषायादि में दुष्प्रयुक्त होता है, तब आत्मोपधि- आत्मा परिग्रह रूप लेता है। तब कर्मोपधि का संचय होता है और कर्म से शरीरोपधि होती है। शरीरोपधि को लेकर नैरयिक, मनुष्य आदि व्यवहार (संज्ञा) होता है। 'कम्ममाहय छणं' इस प्रकार का पाठान्तर मिलता है। उसका भावार्थ यह है कि जिस क्षण अज्ञान. प्रमाद आदि के कारण कर्मबन्धन की हेतु रूप कोई प्रवृत्ति हो जाय तो सावधान साधक तत्क्षण उसके मूल कारण की खोज करके उससे निवृत्त हो जाए। 'पडिलेहिय सव्वं समायाय' इसके स्थान पर चूर्णि में 'पडिलेहेहि य सव्वं समायाए' पाठ मिलता है। इसका अर्थ है - भली-भाँति निरीक्षण-परीक्षण करके पूर्वोक्त कर्म और उसके सब उपादान रूप तत्त्वों का निवारण करे। किसी-किसी प्रति में 'मतिमं'(मइमं) के स्थान पर 'मेधावी' शब्द मिलता है, उसका प्रसंगवश अर्थ किया गया है- मेधावी - मर्यादावस्थित होकर साधक संयम पालन में पराक्रम करे।।
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