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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध कर्म, कर्म का छेदन करने वाले 'कुशल कहलाते हैं । यहाँ पर 'कुशल' शब्द तीर्थंकर भगवान् महावीर का विशेषण है।
वैसे, ज्ञानी, धर्म-कथा करने में दक्ष, इन्द्रियों पर विजय पाने वाला, विभिन्न सिद्धान्तों का पारगामी, परीषहजयी, तथा देश-काल का ज्ञाता मुनि कुशल कहा जाता है।
प्रस्तुत सूत्र में 'कुशल' शब्द केवली' के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है।
छणं-छणं- यह शब्द दो बार आने का प्रयोजन यह है कि हिंसा को, तथा हिंसा के कारणों को, तथा लोकसंज्ञा को समग्र रूप से जानकर उसका त्याग करे। २
१०५. उद्देसो पासगस्स णत्थि । बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमितदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवर्ल्ड अणुपरियट्टति त्ति बेमि।
॥छट्ठो उद्देसओ समत्तो ॥ १०५. द्रष्टा के लिए (सत्य का सम्पूर्ण दर्शन करने वाले के लिए) कोई उद्देश-(विधि-निषेध रूप विधान/ निदेश) (अथवा उपदेश) नहीं है।
बाल - (अज्ञानी) बार-बार विषयों में स्नेह (आसक्ति) करता है। काम-इच्छा और विषयों को मनोज्ञ समझकर (उनका सेवन करता है) इसीलिए वह दुःखों का शमन नहीं कर पाता । वह शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से दुःखी बना हुआ दुःखों के चक्र में ही परिभ्रमण करता रहता है।
- ऐसा मैं कहता हूँ।
॥षष्ठ उद्देशक समाप्त ॥
॥लोगविजय द्वितीय अध्ययन समाप्त ॥
१. २.
सूत्रकृत १०६ आचा० टीका, पत्रांक १३४।१ विषयों की तीव्र आसक्ति के कारण मानसिक उद्वेग, चिंता, व्याकुलता रहती है तथा विषयों के अत्यधिक सेवन से शारीरिक दुःख - रोग, पीड़ा आदि उत्पन्न होते हैं। चूर्णि में पाठ इस प्रकार है-दुक्खी दुक्खावट्टमेए अणुपरियट्टति दुक्खाणं आवट्टो दुक्खावट्टो।
- चूर्णि (मुनि जम्बूविजयजी, टिप्पण पृ० ३०)