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O आचारांग सूत्र के तृतीय अध्ययन का नाम 'शीतोष्णीय ' है ।
शीतोष्णीय का अर्थ है - शीत (अनुकूल) और उष्ण (प्रतिकूल) परिषह आदि को समभावूक सहन करने से सम्बन्धित ।
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शीतोष्णीय-तृतीय अध्ययन
१.
२.
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प्राथमिक
श्रमणचर्या में बताये गये बाईस परिषहों में दो परिषह 'शीत- परिषह' हैं, जैसे 'स्त्रीपरिषह, सत्कार - परिषह ।' अन्य बीस 'उष्ण- परिषह' माने गये हैं ।
शीत से यहाँ 'भावशीत' अर्थ ग्रहण किया गया है; जो कि जीव का परिणाम - चिन्तन विशेष है । यहाँ चार प्रकार के भावशीत बताये गये हैं २ - (१) मन्दपरिणामात्मक परिषह, (२) प्रमाद (कार्य - शैथिल्य या शीतल - विहारता) का उपशम, (३) विरति (प्राणातिपात आदि से निवृत्ति, सत्रह प्रकार का संयम) और (४) सुख (सातावेदनीय कर्मोदयजनित) ।
उष्ण से भी यहाँ ! भाव - उष्ण' का ग्रहण किया गया है, वह भी जीव का परिणाम / चिन्तन विशेष है। निर्युक्तिकार ने भाव उष्ण ८ प्रकार के बताये हैं (१) तीव्र - दुःसह परिणामात्मक प्रतिकूल परिषह, (२) तपस्या में उद्यम, (३) क्रोधादि कषाय, (४) शोक, (५) आधि ( मानसिक व्यथा), (६) वेद (स्त्री - पुरुष - नपुंसक रूप ), (७) अरति ( मोहोदयवश का चित्त का विक्षेप) और (८) दुःख असातावेदनीय कर्भोदयजनित ।
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शीतोष्णीय अध्ययन का सार है- मुमुक्षु साधक को भावशीत और भाव - उष्ण, दोनों को ही समभापूर्वक सहन करना चाहिए, सुख में प्रसन्न और दुःख में खिन्न नहीं होना चाहिए अर्थात् अनुकूल-प्रतिकूल स्थितियों में समभाव रखना चाहिए।
इन्हीं भाव-शीत और भाव - उष्ण के परिप्रेक्ष्य में इस अध्ययन के उद्देशकों में वस्तु-तत्त्व का प्रतिपादन किया गया है।
आचा० नि० गाथा २०१
'सीय परीसहपमायुवसम विरई -सुहं तु चउण्हं ।' - आ निर्यु० गा० २०२ 'परीसहतवुज्जय कसाय सोगाहिवेयारइ दुक्खं ।' - आ० निर्यु० गाथा २०२