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द्वितीय अध्ययन : षष्ठ उद्देशक: सूत्र १०२-१०५
इस प्रकार का कुशल पर्यवेक्षण किये बिना ही अगर वक्ता धर्म-कथन करने लगता है तो कभी संभव है, अपने संप्रदाय या मान्यताओं का अपमान समझकर श्रोता उलटा वक्ता को ही मारने-पीटने लगे । और इस प्रकार धर्म-वृद्धि के स्थान पर क्लेश- वृद्धि का प्रसंग आ जाये । शास्त्रकार ने इसीलिए कहा है कि इस प्रकार उपदेशकुशलता प्राप्त किये बिना उपेदश न देना ही श्रेय है। अविधि या अकुशलता से कोई भी कार्य करना उचित नहीं, उससे तो न करना अच्छा है ।
टीकाकार ने चार प्रकार की कथाओं का निर्देश करके बताया है कि बहुश्रुत वक्ता - आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी - चारों प्रकार की कथा कर सकता है। अल्पश्रुत (अल्पज्ञानी), वक्ता सिर्फ संवेदनी (मोक्ष अभिलाषा जागृत करने वाली) तथा निर्वेदनी (वैराग्य प्रधान) कथा ही करें। वह आक्षेपणी ( स्व - सिद्धान्त का मण्डन करने वाली) तथा विक्षेपणी (पर-सिद्धान्त का निराकरण निरसन करने वाली) कथा न करें। अल्पश्रुत के लिए प्रारंभ की दो कथाएँ श्रेयस्कर नहीं हैं।
सूत्र १०४ में कुशल धर्मकथक को विशेष निर्देश दिये गये हैं। वह अपनी कुशल धर्मकथा के द्वारा विषयआसक्ति में बद्ध अनेक मनुष्यों को प्रतिबोध देकर मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर कर देता है। वास्तव में बंधन से मुक्त होना तो आत्मा के अपने ही पुरुषार्थ से संभव है ' किन्तु धर्मकथक उसमें प्रेरक बनता है, इसलिए उसे एक नय से बन्धमोचक कहा जाता है ।
अणुग्घातणस्स खेतण्णे - इस पद के दो अर्थ हो सकते हैं। टीकाकार ने- 'कर्म प्रकृति के मूल एवं उत्तर भेदों को जानकर उन्हें क्षीण करने का उपाय जानने वाला' यह अर्थ किया है।
उद्घात - घात ये हिंसा के पर्यायवाची नाम हैं। अत: ' अन्+उद्+घात' अनुद्घात का अर्थ अहिंसा व संयम भी होता है। साधक अहिंसा व संयम के रहस्यों को सम्यक् प्रकार से जानता है, अतः वह भी अनुद्घात का खेदज्ञ कहलाता है।
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बंधप्पमोक्खमण्णेसी - इस पद का पिछले पद से सम्बन्ध करते हुए कहा गया है - जो कर्मों का समग्र स्वरूप या अहिंसा का समग्र रहस्य जानता है, वह बंधन से मुक्त होने के उपायों का अन्वेषण / आचरण भी करता है । इस प्रकार ये दोनों पद ज्ञान-क्रिया की समन्विति के सूचक हैं।
कुसले पुणणो बद्धे - यह वाक्य भी रहस्यात्मक है। टीकाकार ने स्पष्टीकरण करते हुए कहा है- कर्म का ज्ञान व मुक्ति की खोज- ये दोनों आचरण छद्मस्थ साधक के हैं। जो केवली हो चुके हैं, वे तो चार घातिकर्मों का क्षय कर चुके हैं, उनके लिए यह पद है। वे कुशल (केवली) चार कर्मों का क्षय कर चुके हैं अतः वे न तो सर्वथा बद्ध कहे जा सकते हैं और न सर्वथा मुक्त, क्योंकि उनके चार भवोपग्राही कर्म शेष हैं।
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'कुशल' शब्द आगमों में अनेक स्थानों पर अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। कहीं तत्वज्ञ ' को कुशल कहा है, कहीं आश्रवादि के हेय-उपादेय स्वरूप के जानकार को । सूत्रकृतांग वृत्ति के अनुसार 'कुश' अर्थात् आठ प्रकार के
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बंधप्पमोक्खो तुज्झ अज्झत्थमेव - आचारांग - सूत्र १५५
आचा० शीला० टीका, पत्रांक १३३
आयुष्य, वेदनीय, नाम, गोत्र- ये चार भवोपग्राही कर्म हैं।
आचा० शीला० टीका, पत्रांक १३३
आचा० १।२।२
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भगवती श० २। उ०५