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________________ ७४ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध . १०२. (आत्मदर्शी) साधक जैसे पुण्यवान् (सम्पन्न) व्यक्ति को धर्म-उपदेश करता है, वैसे ही तुच्छ (विपन्न-दरिद्र) को भी धर्म उपदेश करता है और जैसे तुच्छ को धर्मोपदेश करता है, वैसे ही पुण्यवान को भी धर्मोपदेश करता है। ____ कभी (धर्मोपदेश-काल में किसी व्यक्ति या सिद्धान्त का) अनादर होने पर वह (श्रोता) उसको (धर्मकथी को) मारने भी लग जाता है। अतः यहाँ यह भी जाने (उपदेश की उपुयक्त विधि जाने बिना) धर्मकथा करना श्रेय नहीं है। पहले धर्मोपदेशक को यह जान लेना चाहिए कि यह पुरुष (श्रोता) कौन है? किस देवता को (किस सिद्धान्त को) मानता है ? १०३. वह वीर प्रशंसा के योग्य है, जो (समीचीन धर्म कथन करके) बद्ध मनुष्यों को मुक्त करता है। वह (कुशल साधक) ऊँची दिशा, नीची दिशा और तिरछी दिशाओं में, सब प्रकार से समग्र परिज्ञा/विवेकज्ञान के साथ चलता है। वह हिंसा-स्थान से लिप्त नहीं होता। १०४. वह मेधावी है, जो अनुद्घात - अहिंसा का समग्र स्वरूप जानता है, तथा जो कर्मों के बंधन से मुक्त होने की अन्वेषणा करता है। ... कुशल पुरुष न बंधे हुए हैं और न मुक्त हैं। उन कुशल साधकों ने जिसका आचरण किया है और जिसका आचरण नहीं किया है (यह जानकर, श्रमण) उनके द्वारा अनाचरित प्रवृत्ति का आचरण न करे।। हिंसा और हिंसा के कारणों को जानकर उसका त्याग कर दे। लोक-संज्ञा को भी सर्व प्रकार से जाने और छोड पबलान्वितः। विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में धर्म-कथन करने की कुशलता का वर्णन है । तत्त्वज्ञ उपदेशक धर्म के तत्त्व को निर्भय होकर समभाव पूर्वक उपदेश करता है। सामने उपस्थित श्रोता समूह (परिषद्) में चाहे कोई पुण्यवान - धन आदि से सम्पन्न है, चाहे कोई गरीब, सामान्य स्थिति का व्यक्ति है। साधक धर्म का मर्म समझाने में उनमें कोई भेदभाव नहीं करता। वह निर्भय, निस्पृह और यथार्थवादी होकर दोनों को समानरूप से धर्म का उपदेश देता है। पुण्णस्स-शब्द का 'पूर्णस्य' अर्थ भी किया जाता है। पूर्ण की व्याख्या टीका में इस प्रकार की है - - ज्ञानैश्चर्य-धनोपेतो जात्यन्वयबलान्वितः । तेजस्वी मतिवान् ख्यातः पूर्णस्तुच्छो विपर्ययात्॥ - जो ज्ञान, प्रभुता, धन, जाति और बल से सम्पन्न हो, तेजस्वी हो, बुद्धिमान हो, प्रख्यात हो, उसे 'पूर्ण' कहा गया है। इसके विपरीत तुच्छ समझना चाहिए। सूत्र के प्रथम चरण में वक्ता की निस्पृहता तथा समभावना का निदर्शन है, किन्तु उत्तर चरण में बौद्धिक कुशलता की अपेक्षा बताई गई है। वक्ता समयज्ञ और श्रोता के मानस को समझने वाला होना चाहिए। उसे श्रोता की योग्यता, उसकी विचारधारा, उसका सिद्धान्त तथा समय की उपयुक्तता को समझना बहुत आवश्यक है। वह द्रव्य से- समय को पहचाने, क्षेत्र से - इस नगर में किस धर्म सम्प्रदाय का प्रभाव है, यह जाने। काल से - परिस्थिति को परखे, तथा भाव से - श्रोता के विचारों व मान्यताओं का सूक्ष्म पर्यवेक्षण करे।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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