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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध १००. जो पुरुष वीतराग की आज्ञा का पालन नहीं करता वह संयम-धन (ज्ञानादि रत्नत्रय) से रहित-दुर्वसु है। वह धर्म का कथन - निरूपण करने में ग्लानि (लज्जा या भय) का अनुभव करता है, (क्योंकि) वह चारित्र की दृष्टि से तुच्छ - हीन जो है। - वह वीर पुरुष (जो वीतराग की आज्ञा के अनुसार चलता है) सर्वत्र प्रशंसा प्राप्त करता है और लोक-संयोग (धन, परिवार आदि जंजाल) से दूर हट जाता है, मुक्त हो जाता है। यही न्याय्य (तीर्थंकरों का) मार्ग कहा जाता है।
___ यहाँ (संसार में) मनुष्यों के जो दुःख (या दुःख के कारण) बताये हैं, कुशल पुरुष उस दुःख को परिज्ञा - विवेक (दुःख से मुक्त होने का मार्ग) बताते हैं । इस प्रकार कर्मों (कर्म तथा कर्म के कारण) को जानकर सर्व प्रकार से (निवृत्ति करे)।
.. जो अनन्य (आत्मा) को देखता है, वह अनन्य (आत्मा) में रमण करता है। जो अनन्य में रमण करता है, वह अनन्य को देखता है।
विवेचन - उक्त दो सूत्रों में बंध एवं मोक्ष का परिज्ञान दिया गया है। सूत्र १०० में बताया है, जो साधक वीतराग की आज्ञा की आराधना नहीं करता, अर्थात् आज्ञानुसार सम्यग् आचरण नहीं करता वह ज्ञान-दर्शनचारित्ररूप धन से दरिद्र हो जाता है। जिन शासन में वीतराग की आज्ञा की आराधना ही संयम की आराधना मानी गई है। आणाए मामगं धम्म - आदि वचनों में आज्ञा और धर्म का सह-अस्तित्व बताया गया है, जहाँ आज्ञा है, वहीं धर्म है, जहाँ धर्म है वहाँ आज्ञा है। आज्ञा-विपरीत आचरण का अर्थ है - संयम-विरुद्ध आचरण। संयम से हीन साधक धर्म की प्ररूपणा करने में, ग्लानि - अर्थात् लज्जा का अनुभव करने लगता है। क्योंकि जब वह स्वयं धर्म का पालन नहीं करता, तो उसका उपदेश करने का साहस कैसे करेगा ? उसमें आत्मविश्वास की कमी हो जायेगी तथा हीनता की भावना से स्वयं ही आक्रांत हो जायेगा। अगर दुस्साहस करके धर्म की बातें करेगा तब भी उसकी वाणी में लज्जा, भय और असत्य की गंध छिपी रहेगी।
अगले सूत्र में आज्ञा की आराधना करने वाले मुनि के विषय में बताया है - वही सर्वत्र प्रशंसा प्राप्त करता है, जो वीतराग की आज्ञा का आराधक है। वह वास्तव में वीर (निर्भय) होता है, धर्म का उपदेश करने में कभी हिचकिचाता नहीं। उसकी वाणी में भी सत्य का प्रभाव व ओज गूंजता है।
लोगसंजोगं - का तात्पर्य है - वह वीर साधक धर्माचारण करता हुआ संसार के संयोगों - बंधनों से मुक्त हो जाता है।
· संयोग दो प्रकार के हैं - (१) बाह्य संयोग - धन, भवन, पुत्र, परिवार आदि।(२) आभ्यन्तर संयोग - रागद्वेष, कषाय, आठ प्रकार के कर्म आदि। आज्ञा का आराधक संयमी उक्त दोनों प्रकार के संयोगों से मुक्त होता है।
एस णाए-शब्द से दो अभिप्राय हैं - यह न्याय मार्ग (सन्मार्ग) है, तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित मार्ग है। सूत्रकृत् में भी नेआउयं सुअक्खायं एवं सिद्धिपह णेयाउयं धुवं पद द्वारा सम्यग् ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मक मोक्षमार्गों का तथा मोक्षस्थान का सूचन किया गया है।
एष नायक :- यह - आज्ञा में चलने वाला मुनि मोक्ष मार्ग की ओर ले जाने वाला नायक - नेता है। यह
श्रु०१ अ०८ गा०११ २. श्रु०१ अ०२ उ०१ गा० २१