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द्वितीय अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र ९९-१०१
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उक्त दोनों ही वृत्तियों से - अरति और रति से, संयम-साधना खंडित और भ्रष्ट हो सकती अत: वीर, पराक्रमी, इन्द्रिय-विजेता साधक अपना ही अनिष्ट करने वाली ऐसी वृत्तियों को सहन कैसे करेगा? यह तो उसके गुप्त शत्रु हैं,
अतः वह इनकी उपेक्षा नहीं कर सकता। वह न तो भोग-रति को सहन करेगा और न संयम-अरति को। इसलिए वह इन दोनों वृत्तियों में ही अविमनस्क अर्थात् शांत एवं मध्यस्थ रहकर उनसे विरक्त रहता है।
सूत्र ९९ में पांच इन्द्रियविषयों में प्रथम व अन्तिम विषय का उल्लेख करके मध्य के तीन विषय उसी में अन्तर्निहित कर दिये हैं। इन्हें क्रमशः यों समझना चाहिए - शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श । ये कभी मधुर-मोहक रूप में मन को ललचाते हैं तो कभी कटु अप्रिय रूप से आकर चित्त को उद्वेलित भी कर देते हैं । साधक इनके प्रियअप्रिय, अनुकूल-प्रतिकूल-दोनों प्रकार के स्पर्शों के प्रति समभाव रखता है। ये विषय ही तो असंयमी जीवन में प्रमाद के कारण होते हैं, अतः इनसे निर्विग्न - उदासीन रहने का यहाँ स्पष्ट संकेत किया है।
मोणं - मौन के दो अर्थ किये जाते हैं, मौन – मुनि का भाव - संयम, अथवा मुनि-जीवन का मूल आधार
ज्ञान।
धुणे कम्मसरीरगं - से तात्पर्य है, इस औदारिक शरीर को धुनने से, क्षीण करने से तब तक कोई लाभ नहीं, जब तक राग-द्वेष जनित कर्म (कार्मण) शरीर को क्षीण नहीं किया जाये। साधना का लक्ष्य कर्म-शरीर (आठ प्रकार के कर्म) को क्षीण करना ही है। यह औदारिक शरीर तो साधना का साधन मात्र है। हाँ, संयम के साधनभूत शरीर के नाम पर वह इसके प्रति ममत्व भी न लाये, सरस-मधुर आहार से इसकी वृद्धि भी न करे, इस बात का स्पष्ट निर्देश करते हुए कहा है - पंतं लूहं सेवंति - वह साधक शरीर से धर्मसाधना करने के लिए रूखा-सूखा, निर्दोष विधि से यथाप्राप्त भोजन का सेवन करे।
___टीका आदि में समत्तदंसिणो के स्थान पर सम्मत्तदंसिणो पाठ उपलब्ध है। टीकाकार शीलांकाचार्य ने इसका पहला अर्थ 'समत्वदर्शी' तथा वैकल्पिक दूसरा अर्थ - सम्यक्त्वदर्शी किया है। यहाँ नीरस भोजन के प्रति 'समभाव' का प्रसंग होने से समत्वदर्शी अर्थ अधिक संगत लगता है। वैसे 'सम्यक्त्वदर्शी' में भी सभी भाव समाहित हो जाते हैं । वह सम्यक्त्वदर्शी वास्तव में संसार-समुद्र को तैर चुका है। क्योंकि सम्यक्त्व की उपलब्धि संसारप्रवाह को तैरने की निश्चित साक्षी है। बंध-मोक्ष-परिज्ञान
१००. दुव्वसुमुणी अणाणाए, तुच्छए गिलाति वत्तए । १०१. एस वीरे पसंसिए अच्चेति लोगसंजोगं । एस णाए पव्वुच्चति । जंदुक्खं पवेदितं इह माणवाणं तस्स दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति, इति कम्मं परिण्णाय सव्वसो। जे अणण्णदंसी से अणण्णारामे, जे अणण्णारामे से अणण्णदंसी। अभि० राजेन्द्र, भाग ६, पृ० ४४९ पर इसी सन्दर्भ में मोणं का अर्थ वचन-संयम भी किया है - 'वाचः संयमने।' तथा सर्वज्ञोक्तप्रवचनरूप ज्ञान (आचा०५।२) सम्यक्चारित्र (उत्त० १५) समस्त सावध योगों का त्याग (आचा०५। ३) मौनव्रत (स्थाना०५।१) आदि अनेक अर्थ किये हैं। आचारांग टीका पत्रांक १३०
३. 'अणण्णरामे' पाठान्तर है। चूर्णि में पाठान्तर - "सेणियमा अणण्णदिट्ठी।"