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________________ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध लोक संज्ञा से मुक्त साधु संसार में सुखपूर्वक रहता है। अरति-रति-विवेक ९८. णारतिं सहती वीरे, वीरे णो सहती रतिं । २जम्हा अविमणे वीरे तम्हा वीरे ण रजति ॥३॥ ९९. सद्दे फासे अधियासमाणे णिविंद णंदि इह जीवियस्स । मुणी मोणं समादाय धुणे कम्मसरीरगं । . पंतं लूहं सेवंति वीरा समत्तदंसिणो ।' एस ओघंतरे मुणी तिण्णे मुत्ते विरते वियाहिते त्ति बेमि। ९८. वीर साधक अरति (संयम के प्रति अरुचि) को सहन नहीं करता, और रति (विषयों की अभिरुचि) को भी सहन नहीं करता। इसलिए वह वीर इन दोनों में ही अविमनस्क-स्थिर-शान्तमना रह कर रति-अरति में आसक्त नहीं होता। ९९. मुनि (रति-अरति उत्पन्न करने वाले मधुर एवं कटु) शब्द (रूप, रस, गन्ध) और स्पर्श को सहन करता है। इस असंयम जीवन में होने वाले आमोद आदि से विरत होता है। मुनि मौन (संयम अथवा ज्ञान) को ग्रहण करके कर्म-शरीर को धुन डालता है, (आत्मा से दूर कर देता है) वे समत्वदर्शी वीर साधक रूखे-सूखे (नरस आहार) का समभाव पूर्वक सेवन करते हैं। वह (समदर्शी) मुनि, जन्म-मरणरूप संसार प्रवाह हो तैर चुका है, वह वास्तव में मुक्त, विरत कहा जाता है। - ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - उक्त दो सूत्रों में साधक को समत्वदर्शी शांत और मध्यस्थ बनने का प्रतिपादन किया गया है। रति और अरति - यह मनुष्य के अन्तःकरण में छुपी हुई दुर्बलता है। राग-द्वेष-वृत्ति के गाढ या सूक्ष्म जमे हुए संस्कार ही मनुष्य को मोहक विषयों के प्रति आकृष्ट करते हैं, तथा प्रतिकूल विषयों का सम्पर्क होने पर चंचल बना देते हैं। __यहाँ अरति - का अर्थ है संयम-साधना में, तपस्या, सेवा, स्वाध्याय, आदि के प्रति उत्पन्न होने वाली अरुचि एवं अनिच्छा। इस प्रकार की अरुचि संयम-साधना के लिए घातक होती है। रति का अर्थ है - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि मोहक विषयों से जनित चित्त की प्रसन्नता/रुचि या आकर्षण। १. २. सहते, सहति - पाठान्तर है। चूर्णि में पाठान्तर - जम्हा अविमणो वीरो तम्हादेव विरजते- अर्थात् वीर जिससे अविमनस्क होता है, उसके प्रति राग नहीं करता। सम्मत्तदंसिणो- पाठान्तर भी है। उत्तरा० अ०५ की टीका। देखें अभि० राजेन्द्र भाग ६ पृ०४६७ । यहीं पर आगमों के प्रसंगानुसारी रति शब्द के अनेक अर्थ दिये हैं, जैसे- मैथुन (उत्त०१४) स्त्री-सुख (उत्त० १६) मनोवांछित वस्तु की प्राप्ति से उत्पन्न प्रसन्नता (दर्शन० १ तत्त्व) क्रीड़ा (दशवै०१) मोहनीयकर्मोदय-जनित आनन्द रूप मनोविकार (धर्म० २ अधि)।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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