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द्वितीय अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र ९४-९६
एकाकी रहकर साधना करते वे अपने शरीर का प्रतिकर्म अर्थात् सार-संभाल, चिकित्सा आदि भी नहीं करते-कराते। (२) स्थविरकल्पी श्रमण संघीय जीवन जीते हैं। संयम-यात्रा का समाधिपूर्वक निर्वाह करने के लिए शरीर को भोजन, निर्दोष औषधि आदि से साधना के योग्य रखते हैं। किन्तु स्थविरकल्पी श्रमण भी शरीर के मोह में पड़कर व्याधि आदि के निवारण के लिए सदोष-चिकित्सा का, जिसमें जीव-हिंसा होती हो, प्रयोग न करे। यहाँ पर इसी प्रकार की सदोष चिकित्सा का स्पष्ट निषेध किया गया है।
॥पंचम उद्देशक समाप्त ॥
छट्ठो उद्देसओ
षष्ठ उद्देशक सर्व-अव्रत-विरति
९५. से त्तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए तम्हा पावं कम्मं णेव कुजाण कारवे ।
९६. सिया तत्थ एकयरं विष्परामुसति छसु अण्णयरम्मि कप्पति । सुहट्ठी लालप्पमाणे सएण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति । सएण विप्पमाएण पुढो वयं पकुव्वति सिमे पाणा पव्वहिता।
९५. वह (साधक) उस (पूर्वोक्त विषय) को सम्यक् प्रकार से जानकर संयम साधना से समुद्यत हो जाता है। इसलिए वह स्वयं पाप कर्म न करे, दूसरों से न करवाए (अनुमोदन भी न करे)।
____९६. कदाचित् (वह प्रमाद या अज्ञानवश) किसी एक जीवकाय का समारंभ करता है, तो वह छहों जीवकायों में से (किसी का भी या सभी का) समारंभ कर सकता है । वह सुख का अभिलाषी, बार-बार सुख की इच्छा करता है, (किन्तु) स्व-कृत कर्मों के कारण, (व्यथित होकर) मूढ बन जाता है और विषयादि सुख के बदले दुःख को प्राप्त करता है । वह (मूढ) अपने अति प्रमाद के कारण ही अनेक योनियों में भ्रमण करता है, जहाँ पर कि प्राणी अत्यन्त दुःख भोगते हैं।
विवेचन - पूर्व उद्देशकों में, परिग्रह तथा काम की आसक्ति से ग्रस्त मनुष्य की मनोदशा का वर्णन किया गया है। यहाँ उसी संदर्भ में कहा है - आराक्ति से होने वाले दुःखों को समझकर साधक किसी भी प्रकार का पाप कार्य न करे।
पाप कर्म न करने के संदर्भ में टीकाकार ने प्रसिद्ध अठारह पापों का नाम-निर्देश किया है तथा बताया है, ये तो मुख्य नाम हैं, वैसे मन के जितने पापपूर्ण संकल्प होते हैं, उतने ही पाप हो सकते हैं । उनकी गणना भी संभव नहीं है। साधक मन को पवित्र कर ले तो पाप स्वयं नष्ट हो जाए। अत: वह किसी भी प्रकार का पाप न करे, न करवाए, अनुमोदन न करने का भाव भी इसी में अन्तर्निहित है।