________________
६६
आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
___ अर्थ-लोलुप व्यक्ति की इसी मानसिक दुर्बलता को उद्घाटित करते हुए शास्त्रकार ने कहा है - वह भोग एवं अर्थ में अत्यन्त आसक्त पुरुष स्वयं को अमर की भाँति मानने लगता है और इस घोर आसक्ति का परिणाम आता हैआर्तता - पीड़ा, अशान्ति और क्रन्दन । पहले भोगप्राप्ति की आकांक्षा में क्रन्दन करता है,रोता है, फिर भोग छूटने के शोक - (वियोग चिन्ता) में क्रन्दन करता है। इस प्रकार भोगासक्ति का अन्तिम परिणाम क्रन्दन - रोना ही है।
बहुमायी शब्द के द्वारा - क्रोध, मान, माया और लोभ चारों कषायों का बोध अभिप्रेत है। क्योंकि अव्यवस्थित चित्तवाला पुरुष कभी माया, कभी क्रोध, कभी अहंकार और कभी लोभ करता है। वह विक्षिप्त-पागल की तरह आचरण करने लगता है। १ . सदोष-चिकित्सा-निषेध
९४. से तं जाणह जमहं बेमि । तेइच्छं पंडिए पवयमाणे से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपित्ता विलुपित्ता उद्दवइत्ता 'अकडं करिस्सामि' त्ति मण्णमाणे, जस्स वि य णं करेइ ।
अलं बालस्स संगेणं, जे वा से कारेति बाले । . . ण एवं अणगारस्स जायति त्ति बेमि।
॥पंचमो उद्देसओ समत्तो ॥ ९४. तुम उसे जानो, जो मैं कहता हूँ। अपने को चिकित्सा-पंडित बताते हुए कुछ वैद्य, चिकित्सा (कामचिकित्सा) में प्रवृत्त होते हैं । वह (काम-चिकित्सा के लिए) अनेक जीवों का हनन, भेदन, लुम्पन, विलुम्पन और प्राण-वध करता है। जो पहले किसी ने नहीं किया, ऐसा मैं करूँगा,' यह मानता हुआ (वह जीव-वध करता है)। वह जिसकी चिकित्सा करता है (वह भी जीव-वध में सहभागी होता है)।
(इस प्रकार की हिंसा-प्रधान चिकित्सा करने वाले) अज्ञानी की संगति से क्या लाभ है? जो ऐसी चिकित्सा करवाता है, वह भी बाल-अज्ञानी है।
अनगार ऐसी चिकित्सा नहीं करवाता । - ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में हिंसा-जन्य चिकित्सा का निषेध है। पिछले सूत्रों में काम (विषयों) का वर्णन आने से यहाँ यह भी संभव है कि काम-चिकित्सा को लक्ष्य कर ऐसा कथन किया है। काम-वासना की तृप्ति के लिए मनुष्य अनेक प्रकार की औषधियों का (वाजीकरण-उपवंहण आदि के लिए) सेवन करता है. मरफिया आदि के इन्जेक्शन लेता है, शरीर के अवयव जीर्ण व क्षीणसत्त्व होने पर अन्य पशुओं के अंग-उपांग-अवयव लगाकर कामसेवन की शक्ति को बढ़ाना चाहता है। उनके निमित्त वैद्य-चिकित्सक अनेक प्रकार की जीवहिंसा करते हैं चिकित्सक और चिकित्सा कराने वाला दोनों ही इस हिंसा के भागीदार होते हैं। यहाँ पर साधक के लिए इस प्रकार की चिकित्सा का सर्वथा निषेध किया गया है।
इस सूत्र के सम्बन्ध में दूसरा दृष्टिकोण व्याधि-चिकित्सा (रोग-उपचार) का भी है। श्रमण की दो भूमिकाएँ हैं - (१) जिनकल्पी और स्थविरकल्पी। जिनकल्पी श्रमण संघ से अलग स्वतन्त्र,
१.
आचा० टीका पत्रांक १२५