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________________ ६८ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध सूत्र ९६ में एक गूढ़ आध्यात्मिक पहेली को स्पष्ट किया है। संभव है, कदाचित् कोई साधक प्रमत्त हो जाय', और किसी एक जीव-निकाय की हिंसा करे, अथवा जो असंयत हैं - अन्य श्रमण या परिव्राजक हैं, वे किसी एक जीवकाय की हिंसा करें तो क्या वे अन्य जीव-कायों की हिंसा से बच सकेंगे? इसका समाधान भी दिया गया है - 'छसु अण्णयरम्म कप्पति' एक जीवकाय की हिंसा करने वाला छहों काय की हिंसा कर सकता है। - भगवान् महावीर के समय में अनेक परिव्राजक यह कहते थे कि - 'हम केवल पीने के लिए पानी के जीवों की हिंसा करते हैं, अन्य जीवों की हिंसा नहीं करते।' गैरिक व शाक्य आदि श्रमण भी यह कहते थे कि- 'हम केवल भोजन के निमित्त जीवहिंसा करते हैं, अन्य कार्य के लिए नहीं।' सम्भव है ऐसा कहने वालों को सामने रखकर आगम में यह स्पष्ट किया गया है कि - जब साधक के चित्त में किसी एक जीवकाय की हिंसा का संकल्प हो गया तो वह अन्य जीवकाय की हिंसा भी कर सकता है, और करेगा। क्योंकि जब अखण्ड अहिंसा की चित्त धारा खण्डित हो चुकी है, अहिंसा की पवित्र चित्तवृत्ति मलिन हो गई है, तो फिर यह कैसे हो सकता है कि एक जीवकाय की हिंसा करे और अन्य के प्रति मैत्री या करुणा भाव दिखाए? दूसरा कारण यह भी है कि - यदि कोई जलकाय की हिंसा करता है, तो जल में वनस्पति का नियमतः सद्भाव है, जलकाय की हिंसा करने वाला वनस्पतिकाय की हिंसा भी करता ही है। जल के हलन-चलन-प्रकम्पन से वायुकाय की भी हिंसा होती है, जल और वायुकाय के समारंभ से वहाँ रही हुई अग्नि भी प्रज्ज्वलित हो सकती है तथा जल के आश्रित अनेक प्रकार के सूक्ष्म त्रस जीव भी रहते हैं । जल में मिट्टी (पृथ्वी) का भी अंश रहता है अतः एक जलकाय की हिंसा से छहों काय की हिंसा होती है। २ । ___ छसु' शब्द से पांच महाव्रत व छठा रात्रि-भोजन-विरमणव्रत भी सूचित होता है। जब एक अहिंसा व्रत खण्डित हो गया तो सत्य भी खण्डित हो गया, क्योंकि साधक ने हिंसा-त्याग की प्रतिज्ञा की थी। प्रतिज्ञा-भंग असत्य का सेवन है। जिन प्राणियों की हिंसा की जाती है उनके प्राणों का हरण करना, चोरी है । हिंसा से कर्म-परिग्रह भी बढ़ता है तथा हिंसा के साथ सुखाभिलाष - काम-भावना उत्पन्न हो सकती है। इस प्रकार टूटी हुई माला के मनकों की तरह एक व्रत टूटने पर सभी छहों व्रत टूट जाते हैं - भग्न हो जाते हैं। एक पाप के सेवन से सभी पाप आ जाते हैं - 'छिद्रेष्वना बहुली भवन्ति' के अनुसार एक छिद्र होते ही अनेक अवगुण आ जायेंगे, अतः यहाँ प्रस्तुत सूत्र में अहिंसा व्रत की सम्पूर्ण अखण्ड-निरतिचार साधना का निर्देश किया गया है। पुढो वयं - के दो अर्थ हैं - (१) विविध व्रत, और (२) विविध गति-योनिरूप संसार । यहाँ दोनों ही अर्थों की संगति बैठती है। एक व्रत का भंग करने वाला पृथक्व्रतों को अर्थात् अन्य सभी व्रतों को भंग कर डालता है, तथा वह अपने अति प्रमाद के ही कारण पृथक्-पृथक् गतियों में, अर्थात् अपार संसार में परिभ्रमण करता है। १. "सिया कयाइ से इति असजतस्स निद्देसो पत्तसजतस्स वा...।" - आचा० चूर्णि (जम्बू०.पृ० २८) आचा० शीला० टीका पत्रांक १२७-१२८ ३. (क) वयं - शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है - "वयन्ति-पर्यटन्ति प्राणिनः यस्मिन् स वयः संसारः।" - आचा० शीला० टीका पत्रांक १२८ (ख) ऐतरेय ब्राह्मण में भी 'वयः' शब्द गति अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। - ऐत० अ० १२, खं ८०
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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