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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
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काल, एक दीर्घ अवधि के समय को कहा गया है; जैसे दिन-रात, पक्ष आदि । क्षण- छोटी अवधि का समय । वर्तमान समय क्षण कहलाता है।
विणयण्णे - विनयज्ञ- ज्ञान-दर्शन- चारित्र को विनय कहा गया है। इन तीनों के सम्यक् स्वरूप को जानने वाला।' अथवा विनय - बड़ों एवं छोटों के साथ किया जाने वाला व्यवहार । व्यवहार के औचित्य का जिसे ज्ञान हो, जो लोक-व्यवहार का ज्ञाता हो। विनय का अर्थ आचार भी है। अतः विनयज्ञ का अर्थ आचार का ज्ञाता भी है। समयण्णे- समयज्ञ। यहां 'समय' का अर्थ सिद्धान्त है । स्व पर सिद्धान्तों का सम्यक् ज्ञाता समयज्ञ कहलाता है।
भावण्णे - भावज्ञ - व्यक्ति के भावों - चित्त के अव्यक्त आशय को, उसके हाव-भाव - चेष्टा एवं विचारों से ध्वनित होते गुप्त भावों को समझने में कुशल व्यक्ति भावज्ञ कहलाता है । ४
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आशय
परिग्गहं अममायमाणे पद में 'परिग्रह' का अर्थ शरीर तथा उपकरण किया गया है। " साधु परिग्रहत्यागी होता है। शरीर एवं उपकरणों पर मूर्च्छा - ममता नहीं रखता। अतः यहाँ शरीर और उपकरण को 'परिग्रह' कहने का • संयमोपयोगी बाह्य साधनों से ही है। उन बाह्य साधनों का ग्रहण सिर्फ संयमनिर्वाह की दृष्टि से होना चाहिए, उनके प्रति 'ममत्व' भाव न रखे। इसीलिए यहाँ 'अममत्व' की विशेष सूचना है। शरीर और संयम के उपकरण भी ममत्व होने पर परिग्रह हो जाते हैं ।
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काणुट्ठाई - कालानुष्ठायी से तात्पर्य है, समय पर उचित उद्यम एवं पुरुषार्थ करने वाला । योग्य समय पर योग्य कार्य करना - यह भाव कालानुष्ठायी से ध्वनित होता है ।
अपडणे - अप्रतिज्ञ किसी प्रकार का भौतिक संकल्प (निदान) न करने वाला। प्रतिज्ञा का एक अर्थ 'अभिग्रह' भी है। सूत्रों में विविध प्रकार के अभिग्रहों का वर्णन आता है " और तपस्वी साधु ऐसे अभिग्रह करते भी हैं । किन्तु उन अभिग्रहों के मूल में मात्र आत्मनिग्रह एवं कर्मक्षय की भावना रहती है, जबकि यहाँ राग-द्वेष मूलक किसी भौतिक संकल्प - प्रतिज्ञा के विषय में कहा गया है, जिसे 'निदान' भी कहते हैं ।
प्रतिज्ञ शब्द से एक तात्पर्य यह भी स्पष्ट होता है कि श्रमण किसी विषय में प्रतिज्ञाबद्ध - एकान्त आग्रही न हो। विधि-निषेध का विचार/चिन्तन भी अनेकान्तदृष्टि से करना चाहिए। जैसा कि कहा गया है
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नय किंचि अणुण्णायं पडिसिद्धं वा वि जिणवरिंदेहिं ।
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मोत्तूण मेहुणभावं, न तं विणा राग-दोसेहिं ।
- जिनेश्वरदेव ने एकान्त रूप से न तो किसी कर्तव्य - ( आचार) का विधान किया है, और न निषेध । सिर्फ
आचा० टीका पत्रांक १२० । १
उत्तरा० १ । १ की टीका ।
आचा० शीलां० टीका पत्रांक १२० । १
आचा० शीलां० टीका पत्रांक १२० । १
आचा० शीलां० टीका पत्रांक १२० । २
आचा० टीका पत्रांक १२० । २
औपपातिक सूत्र, श्रमण अधिकार
(क) अभि० राजेन्द्र भाग १ 'अपडिण्ण' शब्द (ख) आचा० टीका पत्रांक १२० । २