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द्वितीय अध्ययन : पंचम उद्देशक
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वह भोजन की संधि - समय को देखे। गृहस्थ के घर पर जिस समय भिक्षा प्राप्त हो सकती हो, उस अवसर को जाने। चूर्णिकार ने संधि के दो अर्थ किये हैं - (१) संधि - भिक्षाकाल अथवा (२) ज्ञान-दर्शन - चारित्ररूप भावसंधि (सु-अवसर) इसको जाने।
भिक्षाकाल का ज्ञान रखना अनगार के लिए बहुत आवश्यक है। भगवान् महावीर के समय में भिक्षा का काल दिन का तृतीय पहर माना जाता था जबकि उसके उत्तरवर्ती काल में क्रमशः द्वितीय पहर भिक्षाकाल का मान लिया गया। इसके अतिरिक्त जिस देश-काल में भिक्षा का जो उपयुक्त समय हो, वही भिक्षाकाल माना जाता है। पिंडैषणा अध्ययन, दशवैकालिक (५) तथा पिंडनियुक्ति आदि ग्रन्थों में भिक्षाचरी का काल, विधि, दोष आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है।
श्रमण के लिए यहाँ तीन विशेषण दिये गये हैं - (१) आर्य, (२) आर्यप्रज्ञ और (३) आर्यदर्शी । ये तीनों विशेषण बहुत सार्थक हैं। आर्य का अर्थ है - श्रेष्ठ आचरण वाला अथवा गुणी । आचार्य शीलांक के अनुसार जिसका अन्त:करण निर्मल हो, वह आर्य है। जिसकी बुद्धि परमार्थ की ओर प्रवृत्त हो, वह आर्यप्रज्ञ है। जिसकी दृष्टि गुणों में सदा रमण करे वह अथवा न्याय मार्ग का द्रष्टा आर्यदर्शी है।५
। सव्वामगंध-शब्द में आमगंध शब्द अशुद्ध, अग्रहणीय आहार का वाचक है। सामान्यतः 'आम' का अर्थ 'अपक्व' है । वैद्यक ग्रन्थों में अपक्व - कच्चा फल, अन्न आदि को आम शब्द से व्याख्यात किया है। पालिग्रन्थों में 'पाप' के अर्थ में 'आम' शब्द का प्रयोग हुआ है। जैन सूत्रों व टीकाओं में आम' व आमगंध' शब्द आधाकादि दोष से दूषित, अशुद्ध तथा भिक्षु के लिए अकल्पनीय आहार के अर्थ में अनेक स्थानों पर आया है।
कालज्ञ आदि शब्दों का विशेष आशय इस प्रकार है -
कालण्णे - कालज्ञ - भिक्षा के उपयुक्त समय को जाननेवाला अथवा काल - प्रत्येक आवश्यक क्रिया का उपयुक्त समय, उसे जानने वाला। समय पर अपना कर्तव्य पूरा करने वाला 'कालज्ञ' होता है।
बलण्णे - बलज्ञ - अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य को पहचानने वाला तथा शक्ति का, तप, सेवा आदि में योग्य उपयोग करने वाला। .
मातण्णे - मात्रज्ञ - भोजन आदि उपयोग में लेने वाली प्रत्येक वस्तु का परिमाण - मात्रा जानने वाला।
खेयण्णे - खेदज्ञ - दूसरों के दुःख एवं पीड़ा आदि को समझने वाला तथा - क्षेत्रज्ञ - अर्थात् जिस समय व जिस स्थान पर भिक्षा के लिए जाना हो, उसका भलीभाँति ज्ञान रखने वाला।
खणयण्णे - क्षणज्ञ - क्षण को, अर्थात् समय को पहचानने वाला। काल और क्षण में अन्तर यह है कि - १. संधि,जं भणितं भिक्खाकालो,..अहवा नाण-दसण-चरित्ताइ भावसंधी ।ताई लभित्ता। - आचारांग चूर्णि
उत्तराध्ययन सूत्र - 'तइयाए भिक्खायरिय' - २६ । १२ नालन्दा विशाल शब्दसागर 'आर्य' शब्द । गुणैर्गुणवद्भिर्वा अर्यन्त इत्यार्याः - सर्वार्थ० ३।६ (जैन लक्षणावली, भाग १, पृ० २११)
आचा० शीला० टीका पत्रांक ११८ . देखें- आचारांग; आचार्य श्री आत्मारामजी कृत इसी सूत्र की टीका
अभिधान राजेन्द्र भाग २, 'आम' शब्द पृष्ठ ३१५ खित्तणोभिक्खायरियाकुसलो- आचा० चूर्णि।