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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
सामासाए पातरासाए संणिहिसंणिचयो कजति इहमेगेसिं माणवाणं भोयणाए ।
८८. समुट्ठिते अणगारे आरिए' आरियपण्णे आरियदंसी अयं संधी ति अदक्खु । से णाइए, णाइआवए, न समणुजाणए । सव्वामगंधं परिण्णाय णिरामगंधे परिव्वए । अदिस्समाणे कय-विक्कएसु । से ण किणे, ण किणावए, किणंतं ण समणंजाणए ।
से भिक्खू कालण्णे बालपणे मातण्णे खेयण्णे खणयण्णे विणयपणे समयण्णे भावण्णे परिग्गहं अममायमाणे कालेणुट्ठाई अपडिण्णे । दुहतो छित्ता णियाइ ।
८७. असंयमी पुरुष अनेक प्रकार के शस्त्रों द्वारा लोक के लिए (अपने एवं दूसरों के लिए) कर्म समारंभ (पचन-पाचन आदि क्रियाएँ) करते हैं। जैसे -
अपने लिए, पुत्र, पुत्री, पुत्र-वधू, ज्ञातिजन, धाय, राजा, दास-दासी, कर्मचारी, कर्मचारिणी, पाहुने – मेहमान आदि के लिए तथा विविध लोगों को देने के लिए एवं सायंकालीन तथा प्रात:कालीन भोजन के लिए।
इस प्रकार वे कुछ मनुष्यों के भोजन के लिए सन्निधि (दूध-दही आदि पदार्थों का संग्रह) और सन्निचय (चीनी-घृत आदि पदार्थों का संग्रह) करते रहते हैं।
८८. संयम-साधना में तत्पर हुआ आर्य, आर्यप्रज्ञ और आर्यदर्शी अनगार प्रत्येक क्रिया उचित समय पर ही करता है। वह 'यह शिक्षा का समय - संधि (अवसर) है' यह देखकर (भिक्षा के लिए जाये)। . वह सदोष आहार को स्वयं ग्रहण न करे, न दूसरों से ग्रहण करवाए तथा ग्रहण करने वाले का अनुमोदन नहीं करे।
वह (अनगार) सब प्रकार के आमगंध (आधाकर्मादि दोषयुक्त आहार) का परिवर्जन करता हुआ निर्दोष भोजन के लिए परिव्रजन - भिक्षाचरी करे। वह वस्तु के क्रय-विक्रय में संलग्न न हो। न स्वयं क्रय करे, न दूसरों से क्रय करवाए और न क्रय करने वाले का अनुमोदन करे। ____वह (उक्त आचार का पालन करने वाला) भिक्षु कालज्ञ है, बलज्ञ है, मात्रज्ञ है, क्षेत्रज्ञ है, क्षणज्ञ है, विनयज्ञ है, समयज्ञ है, भावज्ञ है। परिग्रह पर ममत्व नहीं रखने वाला, उचित समय पर उचित कार्य करने वाला अप्रतिज्ञ है। वह राग और द्वेष - दोनों का छेदन कर नियम तथा अनासक्तिपूर्वक जीवन यात्रा करता है।
विवेचन - चतुर्थ उद्देशक में भोग-निवृत्ति का उपदेश दिया गया। भोग-निवृत्त गृहत्यागी पूर्ण अहिंसाचारी श्रमण के समक्ष जब शरीर-निर्वाह के लिए भोजन का प्रश्न उपस्थित होता है, तो वह क्या करे ? शरीर-धारण किये रखने हेतु आहार कहाँ से, किस विधि से प्राप्त करे, ताकि उसकी ज्ञान-दर्शन-चारित्र-यात्रा सुखपूर्वक गतिमान रहे। इसी प्रश्न का समाधान प्रस्तुत उद्देशक में दिया गया है।
- सूत्र ८७-८८ में बताया है कि गृहस्थ स्वयं के तथा अपने सम्बन्धियों के लिए अनेक प्रकार का भोजन तैयार करते हैं। गृहत्यागी श्रमण उनके लिए बने हुए भोजन में से निर्दोष भोजन यथासमय यथाविधि प्राप्त कर लेवे।
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चूर्णि में इसके स्थान पर 'आयरिए, आयरियपण्णे, आयरियदिट्ठी' - पाठ भी है। जिसका आशय है आचारवान्, आचारप्रज्ञ तथा आचार्य की दृष्टि के अनुसार व्यवहार करने वाला।