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[१२] उस समय गुर्जर देश उन्नति के अन्तिम शिखर पर चढा हुआ था । गुर्जरेश्वरों से क्या मालवेश और क्या कोंकणेश समीप वर्ती सभी नृपति कांपते रहते थे । गुजरात की प्रभुता और प्रतिष्ठा सुदूर तक प्रख्यात थी । भारत के सभी प्रदेशों में से प्रौढ प्रौढ पण्डित अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन कराने के लिये गुजर्राजधानी में अवश्य आया करते थे । गुर्जरपति की विद्वत्सभा भी भारत में आदर्श गिनी जाती थी। * ऐसी प्रभावशाली परि
-- * कवि यशश्चन्द्र ने, मुद्रितकुमुदचन्द्र में, गुर्जरेश्वर की परिषद् का थोडासा वर्णन, देवसूरि और श्रीपाल के मुख से इस प्रकार करवाया है,
देवसूरिः-कश्चायं स्वसभया पराजितायां सुधर्मायां सुधास्पर्धाऽनुबन्धो 'घराधीश्वरस्य, किं नालोक्यतेऽनेकचतुराननाः, किं न परिस्फुरन्ति गणनातिकान्ता गिरीशाः, किं न लक्षीक्रियन्ते लक्षशः पुण्डरीकाक्षाः, किं न जृम्भन्ते भूरिशो जिष्णवः, किं नोल्लसान्त बहवो राजहंसाः, किं न विलसन्ति सहस्रशो भूतनयजुधाः, किं न प्रगल्भायन्ते मध्ये सुधर्माधिकृतमन्त्रिणः।। कविः -भगवन् ! इडगेव गुर्जरेश्वरस्य सभा । तथा हितावद् व्याकरणप्रवीणभणितिः प्रागल्भ्यमुज्जृम्भते,
तावत्काव्याविचारभारधरणे धीरायते धुर्यता। तावत्तर्ककथाऽनुबन्धविषये बद्धाभिलाषं मनो
यावन्नो जयसिंहदेवसदसि प्रेक्षावतामागमः ॥ देवसूरि:-सा किं कलाप्यस्ति या न प्रेमाकुला चौलुक्यचन्द्रमसि । कविः -भगवन् ! एवमेवैतत् । तथा हि
ऊढा प्रौढिनं मन्त्रोद्धरणपरिणतैः कर्षितो न प्रकर्ष
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