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[११] चक्षु ' था, इस लिये वह ' कर्मपरिणति ' के कठोर नियमों का ज्ञाता होने से, उदित हुए सुखदुःखों का समभाव से 'वेदन" कर लेता था, तो भी, मनुष्य-स्वभाव-सुलभ विषाद कभी कभी योग्य प्रसंग पर थोडा बहुत आही जाता था ! इस का एक उदाहरण हमें मुद्रितकुमुदचन्द्र में से मिलता है ।
ऊपर हमने जिस विवाद का उल्लेख किया है, उस की हील चाल जब अणहिलपुर में हो रही थी तब एक रात्रि को श्रीपाल अपने आचार्य देवमूरि को मिलने के लिये और नृपति सिद्धराज का कुछ सन्देश पहुंचाने के लिये गया । कविराज को आते देख देवसूरि बोले. अये कथं सिद्धभूपालबालमित्रं, सूत्रं सुकवितायाः, कविराजबिरुदकमलनालं, श्रीपालमालोकयामः । ___ कविराज सूरिजी को सप्रणय प्रणाम कर बैठ गया और विषाद पूर्वक बोला
पातुं नेत्राञ्जलिभिस्त्वद्रूपरसायनं विधिहतस्य । श्रीदेवसूरिसुगुरो! नाभङ्गुरमस्ति मे भाग्यम् ॥ इस के उत्तर मे देवसूरि बोले
कवीश्वर ! अप्रतिकार्योऽयं पुराकृतासुकृतपारिपाका, परं कृतै व भगवत्या भारत्या त्वयि त्रिलोकाऽऽकलनकौशलजुषः सारखतचक्षुषो वितरणेन करणा ॥
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