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________________ [१०] ब्रह्मानन्द समान दिव्यरसास्वादप्रद ऐसे काव्यानन्द में परम निमम होने वाले इस आशापूर्ण कवि-हृदय को भी, विधि की दुर्विलासिता ने संसार की क्षणभंगुरता का खेदजनक विचार विकल्प करा कर. 'सर्व क्षणिकं ' मानने वाले सुगत-सिद्धान्ती की समान नैराश्य-भावना का भावुक बनाया था। सृष्टि के दिव्य विभूति-पूर्ण जिन सौन्दर्यशाली पदार्थों का असंख्य वार अवलोकन करने पर भी, जिसके अन्तःकरण ऊपर किंचित् भी प्रभाव नहीं पडता और उन के अपूर्व रहस्य का अल्पमात्र भी अवभासन नहीं होता वैसे सर्वथा जडबुद्धि मनुष्य को भी अपने चर्मचक्षु के चले जाने पर दारुण दुःख हुए करता है, तो फिर, प्रकृति के प्रत्येक पदार्थ में जिस की दृष्टी दिव्य-दृश्यों को ही देखती रहती है, जिन दृश्यों को देख कर जिस के ईश्वरीय हृदय में स्वर्गीय भावों का समुद्र उमड पडता है और जिस समुद्र का एक एक तरंग भी काव्यात्मक मूर्त स्वरूप धारण कर, असीम प्रदेश को रसपरिप्लुत करता है और अगणित काल तक असंख्य सहृदय मनुष्यों को अनिवार्य रसपान कराता रहता है, उस अपार काव्य-संसार के कवि-प्रजापति * की अमोघ शक्तिस्वरूप बाह्यदृष्टि के नष्ट हो जाने पर उस के निसर्ग-प्रेमी आत्मा को कैसा विषाद होता होगा, उस की कल्पना कौन कर सकता है । यद्यपि, कविराज ' चर्मचक्षु ' न होने पर भी 'प्रज्ञा* अपारे काव्यसंसारे कविरेव प्रजापतिः । -ज्वन्यालोक, तृतीयोयोन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003432
Book TitleDropadiswayamvaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1928
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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