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________________ [९] दोनों मुख्य शाखाओं में, परस्पर, एक चिरस्मरणीय और विशेष परिणाम जनक प्रचण्ड विवाद हुआ था। इस विवाद में कर्णाटकीय दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र वादी थे और गूर्जरीय श्वेताम्बरसूरि देवाचार्य प्रतिवादी थे। कविराज श्रीपाल ने इस वाद में प्रमुख भाग लिया था । देवसूरि के पक्ष का यह प्रतापी समर्थक था । कवि यशश्चन्द्र ने इस विवाद के वर्णन-स्वरूप में 'मुद्रितकुमुदचन्द्र '+ नामक एक नाटक लिखा है जिस में इस का विस्तृत वृत्तान्त है । प्रभाचन्द्र-रचित 'प्रभावक-चरित ' *के देवसूरि नामक प्रबन्ध में भी यह समप्र कथन अथित है। . सरस्वती और लक्ष्मी जैसी दोनों परस्पर अत्यन्त असहिष्णु देवीओं की इस कविराज ऊपर पूर्ण कृपा होने पर भी, दौर्भाग्य से प्रकृति-देवी की इस पर अनुचित अकृपा थी । उस ने अपनी अनुदारता के उपलक्ष्य में इस आदर्श आत्मा के अधिष्ठान के अनुपम अलंकार-स्वरूप जो अक्षि-रत्न थे उन का अपहार कर, इस सचराचर जगत् को ' द्रव्यरूप' से ' सत् ' मानने वाले परमार्हत कवि चक्रवर्ती को भी, विज्ञानवादी बौद्ध की तरह, सर्वत्र 'शून्यता' का अनुभव कराने के लिये विचलित किया था। + यह नाटक कब बना इस का निर्णीत उल्लेख नहीं मिलता, परंतु अनुमान होता है कि, उक्त विवाद के थोडे ही वर्षों बाद इस की रचना हुई होनी चाहिए। प्रभावक चरितकार ने इस विषय का हाल इसी नाटक ऊपर से लिया है यह उस चरित के देखने से मालूम हो जायगा । * इस की रचना वि. सं. १३३४ में पूर्ण हुई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003432
Book TitleDropadiswayamvaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1928
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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