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________________ [१३] षद् का कविराज श्रीपाल प्रमुख सभ्य था - सभापति था । किस विद्वान् का कैसा स्वागत करना, किस तरह उस को आदर देना, इस विषय में सिद्धराज सदैव श्रीपाल ही की सलाह और सूचना लिये करता था । ऐसे प्रसंगों में से एक का वर्णन ' प्रभाबकचरित ' के ' हेमचन्द्र - प्रबन्ध' में ( श्लोक १८२ - ३०९ ) विस्तार पूर्वक दिया हुआ है जिस में से किंचित् भाग का भावार्थ यहां पर उद्धृत करते हैं । एक समय, भागवत - संप्रदाय का कोई देवबोधि नामक महाविद्वान् अणहिलपुर में आया । वह बडा भारी विद्वान् और कवि था और अत्यंत अभिमानी था । राजा को उस ने न तो स्वयं जा कर कोई आशीर्वाद ही दिया और न कोई अपने आगमन का संदेश ही पहुंचाया । राजा को खबर पडने पर, श्रीपाल कवि से पूछा कि, यह देवबोधी कोई बहुत वडा विद्वान् और निस्पृही महात्मा है, इस लिये राजसभा में आने जान की कोई दरकार नहीं करता; परंतु अपने देश में जब को ऐसा विद्वान् आवें तो उस का यथेष्ट सत्कार करना यह अपना कर्तव्य है । ऐसा नहीं करने पर राजा और प्रजा की परदेशों में अप स्तन्त्रोत्तान रसेन्द्राऽभ्युदयविधिबुधैर्धारितं नोरत्वम् । स्मार्तैः स्फूर्तिर्वितेने न, न पटिमगुणः स्फोटितो वेदविद्भिः चर्चा चाणाक्यवाचां व्यरचि न सचिवैर्यत्र सिंहासनस्थैः ॥ देवसूरि :- कविकुञ्जर ! विदुषामखण्डपुण्यखेलितमिदं क्षितिपतिः सभापतिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only यदेवंविधः www.jainelibrary.org
SR No.003432
Book TitleDropadiswayamvaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1928
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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