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________________ आत्म-निवेदनम सन्त की वाणी देश, समाज, धर्म, पंथ आदि से परे होती है । सन्त की वाणी में सत्यता निहित होती है तथा होती है- “सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय" की मंगलमयी अखण्ड भावना ! सन्त किसी का बुरा नहीं चाहता, वह तो “सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः" की कामना से ओतप्रोत होता है । इसीलिये तो किसी कवि ने कहा है - तरवर, सरवर सन्तजन, चौथा बरसे मेह । पर-उपकार के कारणे, चारों धारी देह ।। सन्त निन्दा, स्तुति, प्रशंसा से विलग होता है, स्वार्थ से परे रहते हुए मात्र स्व-अर्थ में तल्लीन रहकर, परमार्थ का रहस्य जन-जन में बाँटता हुआ सतत अपने लक्ष्य की ओर अभिमुख रहता है । तभी तो उसकी वाणी में जो गूंज होती है, वह प्रत्येक की आत्मा को अनुगूंजित करती है। कविरत्न उपाध्याय श्री अमरमुनिजी म.सा. भी ऐसे ही विरले सन्त थे, जिन्होंने समाज को एक नई दिशा प्रदान की । आपश्री ने भगवान् महावीर के उपदेशों को मात्र उद्घोषित ही नहीं किया अपितु उसे अपने जीवन में आचरित किया तथा मानवता की सुरसरिता को पुनर्जीवित किया । प्रभु महावीर की वाणी को धर्म, पंथ-सम्प्रदाय से मुक्त करते हुए उसे सार्वजनीन बनाया । आपके काव्य एवं लेखन में धर्म, मानवता आदि की जो व्याख्याएं हैं, वे अन्यत्र अनुपलब्ध है। “सागर नौका और नाविक" ग्रन्थ का पठन किया तो सहज ही यह भावना बनी- इसकी कुछ सामग्री पाठकों तक भी पहुँचाई जाय । बस उसी भावना की क्रियान्विति है, यह पुस्तिका प्रकाशन । आचार्य श्री चन्दनाजी ने आशीर्वचन प्रदान कर इसके प्रकाशन की गरिमा को और अधिक गौरवान्वित कर दिया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003428
Book TitleAmar Kshanikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2010
Total Pages66
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size2 MB
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