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फिरना । एक स्थान से दूसरे स्थान में जाना । परन्तु यहाँ पर गति का एक विशेष पारिभाषिक अर्थ ग्रहण किया गया है । एक भव से दूसरे भव की प्राप्ति को गति कहा गया है । जब तक एक आत्मा मनुष्य-भव के आयुष्य को पूर्ण करके देव-भव में जाने को प्रस्थान करता है, तब उस क्षण से लेकर जब तक वह देव-भव में रहता है, तब तक की वह अवस्था विशेष देव-गति कहलाती है । इसी प्रकार मनुष्य गति, तिर्यञ्चगति और नरक गति के विषय में भी समझ लेना चाहिए ।
'नाम-कर्म' की उत्तर प्रकृतियों में, 'गति-नाम' एक प्रकृति है । उस गति-नाम कर्म के उदय से जीक कभी नरक में, कभी तिर्यञ्च में, कभी मनुष्य में और कभी देव योनि में, जन्म ग्रहण करता है । अतः ये सब संसारी जीव की अशुद्ध पर्याय हैं, जो गति नाम कर्म के उदय से होती रहती है । शुद्ध दृष्टि से जीव, केवल शुद्ध जीव है, नारक आदि नहीं ।
जैन दर्शन में, आत्मा के दो रूप माने गए हैं-मुक्त और संसारस्थ । मुक्त आत्मा वह है, जो कर्मों से रहित हो चुका है । वह शुद्ध है, निरंजन है, मल-रहित है । शास्त्रकार इस प्रकार की आत्मा को सिद्ध कहते हैं । जो एक बार संसार से मुक्त हो गया, वह फिर कभी संसार में नहीं आता । मुक्त एवं सिद्ध आत्माएँ अनन्त हैं और अनन्त होंगी ।
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