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रघुवरजसप्रकास
[ ५६ छंद गगनागा खळ दळ समर खपावत किव जण गावत कीरती। सीता वाहर सझतां वसुधा जाहर वीरती ॥ 'किसना' निस दिन जस कर गुणियण जैनं गावजै । राघव राजा सौ रट प्रगट उंच पद पावजै ॥ ६४
दही एक छकळ फिर च्यार कळ, पांच होय गुरु अंत । अठावीस कळ औण प्रत, द्रुपदी छंद दखंत ॥ ६५
छंद द्रपदी जनक सुता मन रंजण गंजण, असुर अगंजण आहवं । मैं सरणागत कदम सदा मद, मी लजा रख माहवं ॥ दीनानाथ अभै वरदाता, त्राता सेवग तारणं । तौ निज पायनि मौ दसरथ तण, घण पापां सिंघारणं ॥ ६६
दस दस पर विसरांम चव, मत चाळीस हुवंत । गुरु लघु अखिर नियम नहिं, उद्धत छंद अखंत ॥ ६७
छंद उद्धत दळ समत खळ दाह यभ बाज अणथाह , गह रचण गजगाह नरनाह रघुनाथ ।
६४. खपावत-नाश करते हैं । कीरती-कीर्ति यश । वाहर-रक्षा । वसुधा-पृथ्वी। जाहर
जाहिर, प्रसिद्ध । वीरती-वीरत्व, शौर्य । गुणियण-कवि । जैनू-जिसको। ६५. अठावीस-अट्ठाईस । औण-चरण । प्रत-प्रति । दखत-कहते हैं। ६६. रंजण-प्रसन्न करने वाला । गंजण-नाश करने वाला। अगंजण-वह जो जीता न जा
सके, अजयी । पाहवं-युद्ध । घण-बहुत । सिंघारणं-संहार करने वाला। ६७. चव-कह । हुवंत-होते हैं, होती हैं । प्रखंत-कहते हैं। ६८. यभ-इभ, हाथी । बाज-घोड़ा । अणथाह-अपार । गह-गंभीर, महान। गजगाह-युद्ध ।
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