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रघुवरजसप्रकास
छंद सवैइया
अंत भगण इकतीस मत्त पद छैस सवैयौ छाजत । लख कारज तज समर रांम पद बीजां भजतौ मुढ़ न लाजत ॥ संत अनेक उधार सियाबर पै सरणा अनाथां पाळण | गढ़वा जै पढ़ वीज सची गथ जनमां तरणा दुख सौ जाळण ॥ ४०
दूह
पद प्रत मत गुणतीस पढ़ि, अंत गुरु लघु होय । राघव जस जिण मझ रटां, कहै मरहट्टा सोय ॥ ४१ छंद मरहट्टा
सीता सीरांगी वेद वखांणी, सारंगपांगी सांग | मी न मघवांगी बळ ब्रहमांगी, नहिं रुद्रांणी नांम ॥ ४२ जे अंतर जांमी वार नमांमी, स्वांमी जग साधार । जोड़ी चिरजीवं पतनी पीयं, सुज सस दीवं सार ॥ ४३ दूहौ
सात चतुकळ चरण मैं, एक होय गुरु अंत | चतुर पदी कोइक चवै, रुचिरा कोय रटंत ॥ ४४ छंद चतुरपदी तथा रुचिरा
दस माथ विहंडण सुर खंडण, राघव भूप अरोड़ा । पाथर रच पाजं समुद्र सकाजं, तै गड हाटक तोड़ा ॥
४०. छाजत - शोभा देता है । लख-लाखों । बीजां- दूसरोंको । ४१. पद-चरण । प्रत प्रति । सोय- वह |
४२. सारंगपांणी - ( सारंगपारिग) विष्ण ु, श्रीरामचंद्र | सांम - (स्वामी) पति । मीढ़ - समता । मघवांणी - इन्द्राणी | ब्रहमांणी - ब्रह्माणी । रुद्रांणी-पार्वती, सती ।
४३. साधार-रक्षक । पतनी-पत्नी । पीयं पति । सस - शशि, चंद्रमा । दीवं सूर्य ।
४४. कोइक - कोई । चवै - कहते हैं
। रटंत - कहते हैं ।
४५ विहंडण - नाश करने वाला । अरोड़ा - जबरदस्त । हाटक-स्वर्ण । रिव - (रवि)
सूर्य ।
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पाथर - पत्थर । पाजं - सेतु पुल ।
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