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रघुवरजसप्रकास
[ ५३ सीताचौं स्वांमी अंतरजांमी रिव कुळ मंडण राजा। जिण सुजस जपीजै लभ तन लीजै कीजै सुक्रत काजा ॥ ४५
छंद धत्ता सत दुजबर ठाणौ त्रय कळ आणौ कहि धत्ता यक तीस कळ । रटजै मझ राघौ दुख अघ दाघौ फिर तन धारण पाय फळ ।। द्रुम सात बिभेदण क्रमगत छेदण तै जस कह भव सिंधु तर । सुत स्री कौसल्या तार अहल्या, करुणानिध सौ याद कर ॥ ४६
ग्रंथांतरे धतानंद अन्य विध दस सात मात्रा पर विस्रांम अंत लघु सतरै मात्रा सौ धतानंद छंद ।
छंद त्रिभंगी दस अठ अठ छामं चव विस्रांमं छंद सुनांमं तिरभंगी। रघुनाथ समथ्थं हणि दसमथ्थं रखि यळ गथ्थं रिण संगी। ससिबदनी सीता कंत पुनीता दास अभीता कुळदीता। 'किसना' जिण कीता गुण मुख गीता प्रगट पुणीता जगजीता ॥ ४७
खट सदस्य छंद लछण
दूही तिरभंगी १ पदमावती २ दंडकळ ३ लीलावती ४ । दुमिळा ५ जनहर ६ छंद दख झै सम छहं अखंत ॥ ४८
४५. मंडण-प्राभूषण । लभ-लाभ । काजा-कार्य। ४६. सत-सात । दुजबर-चार मात्राका नाम। ठाणौ-रखो। त्रय-तीन । मझ-मध्य ।
दाघौ-जलायो। बिभेदण-भेदन करने वाला। क्रमगत-कर्मगति । छेदण-नाश करने
वाला। भव-संसार। ४७. छाम-छ मात्रा । चव-कह । समथ्थं-समर्थ । हणि-मार कर । दसमथ्थं-रावण ।
रखि-रख कर । यळ-पृथ्वी। गथ्थं-गाथा, वृत्तान्त । ससिबदनी-चन्द्रमुखी। कंतपति । पुनीता-पवित्र । दास-भक्त । अभीता-निर्भय। कुळदीता-(कुल+आदित्य) सूर्यवंशी। कीता-कीति । गीता-गाया।
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