________________
रघुवरजसप्रकास
[ २९७ प्ररथ पै'ली तुक मात्रा सोळे । दूजो तुक मात्रा सोळ होय । पै'ली ही दूजी तुकारा मोहरा मिळे । तुकांत लघु गुरुरौ नेम नहीं। कठेक गुरु मोहरा, कठे'क लघु मोहरा होय । तुक तीजी मात्रा बीस होय । मोहरौ मिळे नहीं। गुरु लघु तुकांत नेम नहीं । यण रीतसू च्यार ही दवाळा होय जिण गीत त्रिपंखौ गीत कहै छै।
अथ गीत त्रिपंखौ उदाहरण
गीत सारंग हण आया अवधेसर, सेसहूंता पूछ राजेस्वर ।
किण-विध न दीसै सीत सूनी कुटी ॥ काहिल बांण कूक म्रग कीधी, दौड़ लछण अग्या मौ दीधी।
भूप म्हैं नटै जद कटुक कथ भाखिया ॥ अह वायक सुण रांम उचारै, वनिता वयण पुरख न विचारै ।
करी वन त्री ढली जका भोळप करी॥ अह कथ सुण बंधव आगी, जपै सेस ज्वाळा तन जागी।
सत्र कर भंज हं आंण बंधव सिया ॥ भ्राता कंठ लगाडै भाई, स्त्रीबर सुर कज बात सुणाई।
त्रिलोकीराव नर भाव तन विसतारे ॥२५५
२५५. सारंग-हरिण । हण-मार कर । अवधेसर-श्री रामचंद्र भगवान । सेसहूंता-लक्ष्मणसे।
राजेस्वर-राजेश्वर। किण-विध-किस प्रकार । दीस-दिखाई देता है। सीत-सीता। काहिल-घायल । कूक-पुकार । कोधी-की। लछण-लक्ष्मण । अग्या-अाज्ञा। मौमुझको। दीधी-दी। जद-जब । कटुक-कटु, कठोर । कथ-वचन । भाखिया-कहे। प्रह-लक्ष्मण। वायक-वचन । वनिता-स्त्री। वयण-वचन । पुरख-पुरुष। त्रीस्त्री। ढली-छोड़ी। जका-जो। भोळप-भूल । अह-यह । कथ-वचन । बंधवभाई। प्रागी-अगाड़ी। जंपै-कहता है । सेस-लक्ष्मण । ज्वाळा-कोपाग्नि। तनशरीर । सत्र-शत्रु । भंज-संहार, ध्वंश। हं-मैं । प्राण-ले आऊँ। बंधव-भाई। सिया-सीता। स्रीबर (श्रीवर)-विष्णु, श्री रामचंद्र । सुर-देवता। कज-लिए । त्रिलोकीराव-श्री रामचंद्र।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org