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रघुवरजसप्रकास
[ २६१ बळ थियौ दित हरणाक्ष्य अप्रबळ ,
तेज मीहर धर रसातळ तांम । ब्रहम पुकार रघुपत करण मुख कहै ॥
गरुड़धुज विप धांम गिड़ ,
प्रळय जळ मग गंध सुध पड़ । आंण घर घर देत अणघट, विकट अर वहै ॥
तन मछ जोजन स्रग लख तण ,
रेण जन सत वरत रखण । समंद प्रळय विहार स्रीरंग, वेद मुख वाणी ॥
वळ चवद रतन उधार हित वप , __कठण पिठ धारी मंद्र कछप । उदध कर मंथांण अणघट, प्रगट कंज पांणी ॥
बळ छळण तन धरि हास बावन ,
पुरंदर द्रढ कर सपावन । फरसधर विप धार हरि फिर, खत्र खळ खंड ॥
रच रांम तन यर रहच रांमण ,
हुवा हळधर बुध दित हण । वळे की वंकी होण राघव, मही सत्त मंड ॥ २४४
अथ गीत दूजौ भंवरगुंजार लछण चवद प्रथम दूजी चवद, सोळ व्रती नव च्यार ।
पूब उतर सम अंत गुरु, जुगम भंवर गुंजार ॥ २४५ २४४. बळ-फिर। थियौ-हुआ । दिन-दैत्य । हरणाक्ष्य-हिरण्याक्ष । अप्रबळ-अत्यन्त
बलशाली। मीहर-सूर्य । अणघट-अपार । मछ-मत्स्य । जोजन-योजन। पिठपीठ। मंद्र-मंद्राचल पर्वत । उदध-समुद्र। कंज-कमल। पांणी-हाथ । बळराजा बलि । पुरंदर-इन्द्र । सपावन-पवित्र । फरसधर-परशूराम । खत्र-क्षत्रियत्व ।
रहच-मार कर। २४५. ती-तीसरी। जुगम (युग्म)-दो, दूसरा । भेळी-साथ ।
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