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रघुवरजसप्रकास
1 २८१ तन खेत तजौ मत सुद्ध मजौ, सुभ रीत सजौ वड संत वजौ।
भव तारण कौसळनंद भजौ ॥ हिय लोभ हरौ धख पुन्य धरौ, क्रत ऊंच करौ सुरराज सरौ ।
रघुनायक दायक मोख ररौ ॥ मन भाव मढौ दुज सेव दढौ, गुरु वेण गढौ चित रंग चढौ ।
पतसीत सप्रवीत सप्रवीत पढौ ॥ २२४
अथ गीत सालूर लछण
दूहौ
धुर अठार वारह दुती, सोळे त्रति चव बार । आद वेद मिळ बी व्रती, यूं सालूर उचार ॥ २२५
अरथ
पै'ली तुक मात्रा अठारै होय । दूजी तुक मात्रा बारै होय । तीजी तुक मात्रा सोळ होय । चौथी तुक मात्रा बारै होय । पै'ली तुक नै चौथी तुक मिळे दु गुरु तुकंत होय । बोजी तुक नै तीजी तुक मिळे । लघु तुकत होय सौ सालूर गीत कहीजै।
अथ गीत सालूर लछण
गीत
सुज बीजै नर पकां मनह सीधौं । जनक तांम मुख जापत, आ जौ महमा काळ अमापत ।
क्रत पण खंडत कीधौ ॥
२२४. खेत-क्षेत्र । तजौ-छोड़ दो। वजौ-कहे जाओ, प्रसिद्ध हो। भव-जन्म संसार ।
कौसळनंद-श्री रामचंद्र भगवान । धख-इच्छा। ऋत ऊंच-उत्तम कार्य । सुरराज-इन्द्र ।
दुज-ब्राह्मण । दढी-दृढ़ करो। पतसीत-श्री रामचन्द्र । सप्रवीत-पवित्र । २२५. दुती-दूसरी। ऋति-तीसरी। चव-चार । बार-बारह । वेद-चौथी। बी-दूसरी।
त्रती-तीसरी। यूं-ऐसे । २२६. महमा-महिमा । अमापत-प्रपार | खंडत-खंडित। कीधी-किया ।
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