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रघुवरजसप्रकास अथ गण मित्र सत्रु कथनं*
दूहौ म न सुमित्र य भ दास मुण, दख ज त विहुउदास । र स बिह वै गण सत्र रट, पढ़ फिर दुगण प्रकास ॥१०
अथ दुगण कथनं
कवित्त छप्पा मित्र मित्र रिध सिध, मित्र दासह जय पावत । हितु उदास धन हांण, मित्र अरि रोग बधावत ॥ दास मित्र सिध काज, दास दासह सुवसीकत ।
दास उदासह हांण, दास अरि हार सु आवत ॥ उदास मित्र फळ तुच्छ गिण, विपत उदास जु दास कर । उदास उदास सु निफळ कह, मिळ उदास रिपु सत्रु कर ॥ ११ १०. मुण-कह । दख-कह । बिहुं-दोनों।
*मित्र दास उदास और शत्र गरण मित्र
दास मगण, नगण
यगण भगरण
फल
सिद्धि जय
मित्र+मित्र मित्र + दास मित्र + उदासीन मित्र + शत्रु
दास + मित्र दास + दास दास + उदास दास + शत्रु
सिद्धि वशीकरण
हानि पराजय
हानि
रोग
उदासीन
शत्रु रगण, सगरण
जगरण,
तगरण
फल
उदासीन + मित्र अल्पफल उदासीन + दास विपत् (विपत्ति ) उदासीन+उदासीन निष्फल (शून्य) उदासीन-+-शत्रु । शत्रूत्पत्ति
शत्रु + मित्र शत्रु + दास शत्रु + उदासीन | शत्रु + शत्रु
शून्य जीवहानि शत्रुहानि क्षय
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