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________________ २५२ ] रघुवरजसप्रकास सयण हुलसण दुयण सकुचण । ग्रहण मोखण धरण सुरगण । जपण कविजण सुजस जणजण, जैत रांम अंगज ॥ १५६ अथ गीत दुतीय त्रकुटबंध चौपई जांण उभय तुक भंवर गुंजार, सोळह प्रथम चवद बी सार । ती चवदह दस गुरु लघुवंत, यण मुहमेळ चवदमी अंत ॥१६० चवद मत तुक दोय चवंत, रटजै मूहमेळ रगणंत । अनुप्रासरी तुक रच आठ, पढ धुर सोळह चवद अन पाठ ॥१६१ प्रत तुक कंठ च्यार प्रमाण, उभै कंठ घट तुक यां आंण । तुक आलूं ही होय लघृत, नवमी दस मत गुरु लघु अंत ॥१६२ दूहा श्रेक प्रत यम तुक होय, साखै बियौ वृकुटबंध सोय ॥१६३ अथ दुतीय गीत त्रकुटबंध उदाहरण गीत जांनकी नायक जगत जाहर, वीर संतां करण वाहर । वहत कथ सुज वेद दुजबर, धनौ करुणाधांम ॥ १५६. सयण-सज्जन । हुलसण-हर्ष, प्रसन्नता। दुयण (दुर्जन)- शत्र, दुष्ट । मोखण छोड़ना। सुरगण-देवता । जपण-जपने को। कविजण-कविजन। जणजण-प्रत्येक व्यक्ति। जैत-विजय । अगंज-जो जीता न जा सके। १६०. उभय-दोनों। चवद-चौदह । बी-दूसरी। ती-तीसरी । लघुवंत-जिसके अन्तमें लघु हो । यण-इस । मुहमेळ, मूहमेळ-तुकबंदी । चवदमी-चौदहवीं । १६१. चवंत-कहते हैं। रगणंत-जिसके अंतमें रगण हो। अन-अन्य । १६२. कंठ-प्रनुप्रास । लघुत-जिसके अंतमें लघु हो। १६३. प्रत–प्रति । यम-इस प्रकार । साखं-कहते हैं, साक्षी देते हैं। बियौ-दूसरा । सोय-वह । १६४. वाहर-रक्षा । वहत-चलता है। कथ-आज्ञा । दुजबर-ब्राह्मण । धनौ-धन्य-धन्य। करुणाधांम-करुणासागर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003420
Book TitleRaghuvarjasa Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSitaram Lalas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages402
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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