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रघुवरजसप्रकासः
[ २४७ नरेस अनाथ. नाथ, अनाथियां घरे आथ । करै तं सुधारे काथ, रटां सांमराथः ॥ भंज के खळां भराथ, गुणां वेद ब्रह्म गाथ । मुणै तौ नमाय माथ, नाथ नाथ नाथ ॥ १५१.
अथ गीत ढोलचलौ तथा ढोलहरी-सावझड़ो लछण
धुर बी ती तुक सोळ मत, चौथी मत्त अढार । सावझड़ौ तुक अंत लघु, ढोलहरौ निरधार ॥ १५२
प्ररथ जिण गीतरै पैली, दूजी, तीजी तुक मात्रा सोळ होय । तुक चौथी मात्रा अढारै होय । पण लघु कर पढ्या चाहै तौ सोळे ही पढी जाय, सावझड़ी होय । कदा'क पैली, दूजी, तीजी, तुकांमें मात्रा सोळ सूं अधिक होय तौ अटकाव नहीं। पण सोळं सूं घटती तो नहीं संभवै । जूनौ गीत देख कीदो छ । अथ गीत ढोलचलौ तथा ढोलहरौ सावझड़ी उदाहरण
गीत पेख बणै जिण बाह परध्धर, धींग भुजां निज चाप सरध्धर । जेण भजै रिखी ब्रह्म जट धर, गावबे गावबे गाव मिरधर ॥ तौ चित चाह उधार सुतंनह, सेवत तौ दसरथ सुनिह । रात दिनां कर खांत रसनह, बोलबे बोलबे बोल विसंनह ॥ १५१. अनाथियां-गरीबों। प्राथ-धन-दौलत । काथ-कार्य, काम। सामराथ-समर्थ ।
भराथ-युद्ध । मुणे-कहते हैं। तौ-तुझको। नमाय-नमा कर । माथ-मस्तक । १५२. धुर-प्रथम । बी-दूसरी। ती-तीसरी। सोळ-सोलह । मत-मात्रा। मत्त-मात्रा।
अढार-अठारह । निरधार-निश्चय। पण-परन्तु । कदा'क-कदाचित् । अटकाव
अड़चन। कीदौ-किया। १५३. पेख-देख कर । बणे-बनता है। धींग-जबरदस्त । चाप-धनुष । सरध्धर-बाण धारण
करता है। जेण-जिसको। रिख-ऋषि । ब्रह्म-ब्रह्मा। जटधर-शिव । गिरधरगिरधारी। तौ-तेरे । चाह-इच्छा। सुतंनह-पुत्र । खांत-विचार । रसनह-जीभ । विसंनह-विष्णु ।
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